बुधवार, 28 मार्च 2018

महाराज   जसवंत सिंह राठौड़  - जोधपुर

महाराज   जसवंत सिंह राठौड़  - जोधपुर
महाराज जसवंत सिंह अपने समय के सबसे प्रभावी नेता थे , जिनका भय मुग़ल दरबार में भी बराबर बना रहता था।  यह भारत के बच्चो का दुर्भाग्य है , की आज तक आजादी के ७० सालो बाद भी वे अपने ही राजाओ - महाराजाओ का वास्तविक इतिहास तक पढ़ नहीं पाए है।   महाराज जसवंत सिंह ने मुगलो की मनसबदारी स्वीकार  कर ली थी , या वे मुगलो के दरबार में चले गए थे , यह कहकर जसवंत सिंह के बारे में अलग ही  सोच भारतीयों के मन में इस वामपंथी इतिहासकारो ने भर दी।  हिन्दू राजा मुग़ल दरबार में क्यों गए , उन्होंने मनसबदारी क्यों ली , यह वामपंथी इतिहासकारो ने कभी स्पष्ट  नहीं किया।  हमे जरूरत है , वास्तविकता जानने की। .
अगर महाराज जसवंत सिंह मुगलो से गुजरात की मनसबदारी ना लेकर , गुजरात की जनता को , ३ -३ मुस्लिम  नवाबो के बीच  पीसने के छोड़ देते वह ज़्यादा अच्छा होता , या गुजरात की मनसबदारी लेना ज़्यादा अच्छा था ?   बस महाराज जसवंत सिंह ने यह जो समझदारी दिखाई थी , इसी तरह की समझदारी दिखाने में हिन्दू राजा कुछ देरी  कर गए थे , हिन्दू धर्म को बचाने  में आज जसवंत सिंह का योगदान कहीं भी महाराणा प्रताप।, शिवाजी , या बाजीराव पेशवा से कम नहीं है , लेकिन हमारे इतिहासकारो की मनमर्जी ने जसवंत सिंह के इतिहास को कुछ और भी रंग दे दिया है , एक अलग ही छवि  जनमानस के मन में राजा जसवंत सिंह से लिए तैयार  कर दी है।  महाराज जसवंत  सिंह केवल  विद्वान ही नहीं , एक तत्व ज्ञानी पुरुष भी थे।  उनके समय में जोधपुर राज्य में विद्या  तथा ज्ञान की बड़ी चर्चा रहती थी , अपने कविओ तथा विद्वानों का उनके द्वार  बराबर समागम होता रहता था।  महाराज जसवंतसिंह  शास्त्रों  तथा वेदों के भी प्रकांड पंडित थे। 
महाराज जसवंत सिंह का जन्म ६ जनवरी १६२९ को जोधपुर में ही हुआ।  आप महाराज गजसिंह  के कनिष्क पुत्र थे।  महाराज  गजसिंह ने ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंह  की उदंडता को देख महाराज जसवंत सिंह को  राजपाठ  सौंपा था।  मात्र १० साल की आयु में जनवरी १६३९ को जसवंत सिंह जोधपुर की राजगद्दी पर बिराजमान हुए। 
जनस्मृतियो में महाराज जसवंत सिंह जो को लेकर एक कथा है , महाराज  जसवंत सिंह एक बार अपने पिता के साथ किसी युद्ध में गए थे , वहां युद्ध में भयंकर मारकाट देख युद्ध बीच  में ही छोड़ वापस महल लौट आये।   जब उनकी माता को पता चला की जसवंत सिंह युद्ध के बीच  से वापस लौट के आये है , तो उन्हें जीवन सीख  देने के लिए माता ने एक तरीका ढूंढ  निकाला। ..
जसवंत सिंह जी को आज  भोजन काठ के बर्तनो में परोसा गया  बालक  जसवंत सिंह ने जब अपनी माता से  काठ के बर्तनो में भोजन परोसने का भेद पूछा , तो माता ने कहा , लोहे की आवाज सुनकर ही तुम युद्ध मैदान से डरकर वापस लौट आये , कहीं बर्तनो की आवाज सुनकर , डरकर महल छोड़कर ना चले जाओ , इसलिए मेने आपको काठ के बर्तनो में खाना दिया है। 
माता के यह वचन सुनकर बालक जसवंत सिंह  के  रोंगटे खड़े हो गए।   " माता रणखेतो में अब आप मेरी तलवार की धार ही देखना   " यह कहकर  जसवंत  सिंह उसी क्षण  युद्ध भूमि के लिए रवाना हो गयी थी। 
१६४२  आसपास ईरान  के इस्लामी गुंडों के एक  समूह ने काबुल के पासपास के क्षेत्र को लूटना चाहा ,  जसवंत सिंह की आयु उस समय केवल १३ वर्ष की थी , लेकिन फिर भी इतने बड़े अभियान की जिम्मेदारी शाहजहां ने जसवंत सिंह को सौंपकर कहा  "  मेरे शत्रु का सर कुचल कर रख दो।  महाराज जसवंत सिंह ने वहीँ किया।  काबुल में जिस तरह जसवंत सिंह ने विद्रोही पठानों और विदेशी आक्रमणकारी आक्रांताओ को जसवंत सिंह ने कुचल कर रख दिया था , इससे जसवंत सिंह का कद मुग़ल दरबार में  बहुत ही ज़्यादा बढ़ गया था।  जसवंत सिंह की ख्याति इतनी बढ़ गयी की बादशाह ने उन्हें आगरा का सूबेदार  नियुक्त कर दिया।  शाहजहां को अपने बुढ़ापे तक यह समझ आ गया था , की उसके दुस्ट  औलादो से उनकी रक्षा केवल महाराज  जसवंत सिंह जी  कर सकते है। 
१६५८ के आस पास मुग़ल शाशन के प्रदेश में  ग्रहयुद्ध की शुरुवात हो गयी , शाहजहां को मूत्रकच्छ रोग जैसी गुप्त बीमारियां हो गयी थी।  उसने इसी समय जसवंत सिंह को अपना सबसे प्रमुख  दरबारी चुना , और अपने बड़े बेटे दाराशिकोह को अपना उत्तराधिकारी चुनना चाहा।   दाराशिकोह ने भी शाशन के सारे अधिकार  बड़े गुपचुप तरीके से अपने हाथ में ले लिए ,  सभी मंत्रियों को गोपनीयता की यह शर्त भी खिला दी , की उसके तीन भाइयो को उसके राजतिलक की खबर ना पता चले।  मुग़ल दरबार में इस तरह से धोखेबाजी से शाशन चल रहा था , शाहजहां   की तीनो औलादो के बीच  गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया , और उसकी सारी  औलादो में यह होड़ मच गयी , की कौन पहले  अपने बाप को बंदी बनाकर उसकी हत्या करें  और उसका राज्य हड़प ले। ..
अब ऐसी स्तिथि में राजपूत क्या करते ??   शाहजहां  ने जसवंत सिंह से आग्रह किया की वे ही अब उनके प्राणो की रक्षा करें और ओरंगजेब को रोके।   २० अप्रेल १६५८ के आसपास का यह समय था। जसवंत सिंह के नेतृत्व मंक २०००० राजपूत ओरंगजेब को रोकने रवाना हुए , और शाहजहां   ने अपनी सेना का नेतृत्व  कासिम खान को देकर भेजा।
मक्कार लोमड़ी ओरंगजेब ने भी झूठ का बहुत बड़ा प्रपंच रचा।  उसने अपने भाई मुराद को बहुत ही स्नेह भरे पत्र में लिखा की , उसकी इच्छा है की मुराद अगला सुल्तान बने।  और ओरंगजेब स्वम् मक्का चला जाए ,  इस धूर्त की इन चिकनी चुपड़ी बातों में फंस मुराद भी अपने बाप के विरुद्ध हो गया। और तो ओर ओरंगजेब ने इस युद्ध से पूर्व  जिहाद का ऐसा नारा लगाया की  सारे के सारे मुस्लमान सैनिक उसी की तरफ हो गए , जो सैनिक शाहजहां की तरफ से लड़ने के लिए आये थे , उन्हें भी ओरंगजेब ने भड़का दिया , की में यह युद्ध अपने लिए नहीं , इस्लाम के लिए लड़ रहा हूँ. जिस शाहजहां की रक्षा के लिए जसवंत सिंहगः जोधपुर से चले थे , उसी शाहजहां से सैनिक इस्लाम के नाम पर उल्टा हिन्दुओ पर ही प्रहार करने लगे।  लेकिन यौद्धा की पहचान तो विषम परिस्थिति में ही होती है।  संकट के समय ही वीर अपना  सर्वनीम  इतिहास लिखते है।  नदी  नर्मदा पर हुए इस युद्ध में मात्र २०००० राजपूत जवान मुगलो की लाखो की सेना से भीड़ गए।  राजपूतो की चमकती दमकती तलवारो के आगे एक बार तो मुग़ल अंधे से ही हो गए , खुद जसवंत सिंह घोड़े पर सवार होकर दोनों हाथों में तलवार लेकर  दुशमनो  का ऐसे शिकार कर रहे थे , जैसे भेड़ो के रेवड़ से सिंह लड़ जाता है।  जसवंत घोड़े समेत रक्त में नहा गए।  मल्लेछों को गाजर मूली की  तरह काट काट कर फेंका गया।  बाकी जो ज़िंदा बचे वे या तो मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए , या जसवंत सिंह के पांवों  में  लोटपलेटे  खा अपने प्राणो की भीख मांगते रहे।  राजपूतो को भी इस युद्ध से भरी नुकसान हुआ , २०००० राजपूतो में से केवल ६०० राजपूत शेष बचे।  जब राजपूत अपने बचे कूचे सेनिको के साथ जोधपुर लौटकर आये  तो उनकी रानी चंद्रावती ने दुर्ग का गेट खोलने से मना  कर दिया। उसने दरबान से कहा " जो बाहर आया है , वह नकली होगा  , मेरा पति युद्ध करते करते वीरगति को प्राप्त हो गया है , तुम मेरे  सती  होने की तैयारी करो  , मेरा पति युद्ध  बीच  में छोड़कर वापस नहीं आ सकता। 
दरअसल रानी चंद्रावती मेवाड़ की राजकुमारी थी।  शाहजहां ने अपने बेटे ओरंगजेब के लिए मेवाड़  राजघराने  से चंद्रावती का रिश्ता माँगा था , मेवाड़ के स्वाभिमानी राजपूतो ने मुग़लो को दुत्कार कर  वापस लौटा दिया , इससे क्रुद्ध हो शाहजहां ने मेवाड़ पर आक्रमण करवा दिया ,  मेवाड़ की सेना का तो यह मल्लेछ कुछ  बिगाड़ सके नहीं , लेकिन इन मानवता से हीन  लोगो ने बहुत ही काफिर महिलाओ को बंदी बना लिया था ,, जिसने एक नीच जात  ईसाई महिला भी थी , वह बड़ी सुंदर कन्या थी , उसे ओरंगजेब ने अपने लिए परमानेंट रख लिया था , और उसी ईसाई महिला को ओरंगजेब ने " उदयपुरिया रानी " कहकर लिखवाया था।  उदयपुर की राजकुमारी चंद्रावती का विवाह तो जोधपुर के महाराज जसवंत सिंह जी से हुआ था।  रानी चन्द्रवती  एक वीरपत्नी थी  , जो सदैव अपने पति  महाराज जसवंत सिंह को विजय की प्रेरणा देती थी , रानी चंद्रावती इतनी योग्य रानी थी ,  की महाराज जसवंत सिंह की अनुपस्थिति में पूरा राजपाठ वे अपने हाथ में ले लेती थी। 
इस युद्ध से पहले जसवंत सिंह जी , और चंद्रावती ने यही सोचा  होगा , मल्लेछ जब आपसी दंगे में खत्म हो जाए , तो राजपूत  इन मल्लेछों पर निर्णायक आक्रमण और इनपर बड़ा प्रहार कर इन्हे जड़ से ही खत्म  कर दे , इस योजना के जसवंत सिंह बहुत करीब पहुँच भी चुके थे।  लेकिन जसवंत सिंह की पराजय देखकर रानी चन्दावती ने अपना आपा खो दिया। 
इसी दुःख  में उन्होंने अपने  पति से कहा " आप युद्ध भूमि से वापस लौट आये , इससे अच्छा तो आप वहीँ शहीद हो जाते , कम से कम मुझे वीरपत्नी कहलाने का सौभाग्य तो प्राप्त होता ,  मैं  भी सती  हो जाती। 
इसपर महाराज जसवंत सिंह जी ने जवाब दिया - " रानी आप पहले बात पूरी जान लेंवे उसके बाद भी आपको हमसे कोई शिकायत रहें , तो आपको  वचन देते है , इसी समय युद्ध भूमि के लिए वापस निकल जाएंगे। 
यह सुन रानी चंद्रावती  स्वम् दुर्ग के बाहर आयी , तब सारे सेनिको ने युद्ध में बीती कथा  कह सुनाई , की किस तरह शाही सेनिको ने धोखा देते हुए उन्ही सेनिको पर प्रहार करना शुरू कर दिया , जिन  सेनिको की  सहायता करने राजपूत सुरमा निकले थे।   महाराज जसवंत सिंह ने  चंद्रावती से कहा , हम सभी का यही सोचना था , ओरंगजेब और उसकी भाई की सेना का सफाया करके सीधे आगरा पर पर हमला करना है , लेकिन शाही सेना को जहाँ ओरंगजेब की सेना के विरुद्ध युद्ध करना था , उन्होंने अपने हथियार  हमारी गर्दनो पर रख दिए , ६०० राजपूतो को छोड़ हमारे सारे वीर सैनिक मारे गए , , और इन ६०० सेनिको के साथ आगरा पर हमला करना , मुझे समझदारी का काम नहीं लगा , आप क्या कहती है महारानी ??
रानी चंद्रावती को अपराध बोध हुआ। ... यह उन्होंने ये क्या कर  , जहाँ उन्हें  जसवंत सिंह की वीरता पर उनका स्वागत  पुष्पवर्षा  के  साथ होना चाहिए था,और कहाँ उन्होंने अपमानजनक शब्दों के कांटे बिछाये थे। 
रानी चंद्रावती ने दोनों हाथ जोड़कर जसवंत सिंह जी से कहा -  " क्षमा कर  दीजिये महाराज , विजय  की आशा में , मैं  इतनी अंधी हो गयी थी , की मेने वास्तविक घटना को जानना ही उचित नहीं समझा। 
जसवंत सिंह तपो  जोधपुर लौट आये , किन्तु वहां बाप बेटो का  गृहयुद्ध चालु था , हार के बाद शाहजहां द्वारा घोषित सुल्तान दारा  शिकोह अपनी मामूली सैनिक टुकड़ी लेकर इधर उधर मारा भागा  घूम रहा था। अंत में शाहजहां को कैद  कर लिया गया , और दाराशिकोह को मार डाला गया।  दाराशिकोह की क्षत  विकृत लाश का पूरी दिल्ली में जुलुस निकाला गया , जिस तरह वाहियात आतंकवादी आज ईरान , इराक़ , सीरिया आदि में तांडव करते है , उसी तरह से ड्रामे मध्यकाल के मुस्लमान भारत में करते थे।   शाहजहां के बंदी बनने के बाद , और दाराशिकोह के वध के बाद बाकी के शाहजहां के चिरागो का सिरछेदन कर ओरंगजेब सभी हिन्दू मंदिरो को मस्जिद में परिवर्तित करने , अपनी प्रजा को लूटने तथा उसका संघार करने  का कलंकित जीवन जीने लग गया।
नर्मदा  नदी के किनारे हुए लड़ाई के बाद ओरंगजेब अच्छे से जान गया था , की जसवंत सिंह आखिर किस बला का नाम है।  उसी समय गुजरात और महाराष्ट्र में  शिवाजी महाराज ने ओरंगजेब का जीना हराम कर रखा था।  ओरंगजेब इन दोनों शक्तियों "जसवंत सिंह और शिवाजी " से एक साथ लड़ने में सक्षम नहीं था , अतः  ओरंगजेब को इनमे से किसी एक से मित्रता करनी  थी , और किसी एक से शत्रुता।  ओरंगजेब ने जसवंत सिंह से मित्रता की , और शिवाजी महाराज से शत्रुता , वह धूर्त यह चाहता  था , की जसवंत सिंह  से मित्रता  कर , जसवंत सिंह के ही हाथो शिवाजी का नाश करवा देगा। 
ओरंगजेब ने बड़ी ही धूर्तता से चाशनी में डुबोकर जसवंत सिंह जो राजधर्म जैसी बड़ी बड़ी बातें करते हुए एक पत्र  लिखा   जसवंत सिंह समझ गए , की इसके पीछे कोई विशेष कारण अवश्य है , उन्होंने ओरंगजेब के इस मैत्री  सम्बन्ध की पेशकश की सुचना शिवाजी महाराज को भी दे दी।  गुजरात पर उस समय शिवाजी का दबदबा था।  शिवाजी महाराज ने जसवंत सिंह से कहा , आप इस मित्रता के बदले ओरंगजेब से गुजरात की मनसबदारी मांग ले। 
ओरंगजेब धूर्त था , तो शिवाजी तथा जसवंत सिंह उससे दुगना होशियार थे , जसवंत सिंह ने  गुजरात की मनसबदारी कुछ सोच समझ कर ही ली थी।  जसवंत सिंह के गुजरात चले जाने के बाद शिवाजी और इनके  बीच  निकटता और बढ़ गयी , शिवाजी महाराज जसवंत सिंह जी द्वारा दिए जा रहे सहयोग दान से बहुत प्रसन्न हुए , दोनों वीरो  ने मिलकर मल्लेछ शाशन के विरुद्ध षड्यंत्र रचना आरम्भ कर दिया।  यदि यह सब कुछ और दिन छुपा रह जाता , तो शिवाजी और जसवंत सिंह मिलकर आगरा के दुर्ग में ही उस मल्लेछ राक्षस की मुड़  टांग देते , ओरंगजेब ने अपने मामा साइस्ता खान को शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा था , लेकिन जो दुर्गति शाइस्ता खान की हुई , ओरंगजेब को यह ज्ञात हो गया , की यह एक कौम के लोग आपस में मिल गए है।  उसने जसवंत सिंह से गुजरात  की मनसबदारी वापस ले, यह मनसबदारी जयपुर के जयसिंह  जी को दे दी।  इन्ही जयसिंह  जी की मध्यस्था  में ही शिवाजी को ओरंगजेब के दरबार बुलाया गया था , संधि और शांतिवार्ता के बहाने शिवाजी  कर  लिया गया।  जयसिंह  को ओरंगजेब ने वचन दिया था , की वह शिवाजी से सिर्फ वार्ता करना चाहता है , उनका अहित नहीं करना चाहता , किन्तु ओरंगेजब ने जयसिंह  और शिवाजी दोनों को धोखा दिया , जयसिंह  जी ने भी उसके बाद फूलो की टोकरी में छुपाकर शिवाजी को आजाद करवा लिया था , इसका दंड भी जयसिंह  जी को दिया गया , गुजरात की मनसबदारी उनसे छीन  दुबारा जसवंत सिंह जी को सौंप दी गयी। 
यही तो जसवंत सिंह जी चाहते थे , लेकिन इस बार ओरंगजेब ने जसवंत सिंह के साथ अपने एक बेटे मुअज्जम को भी कर दिया , जिससे की जसवंत सिंह और शिवाजी के मध्य कोई पत्राचार ना हो सके >..
गुजरात में जब कुछ  करने का मार्ग अब जसवंत सिंह  को नजर नहीं आया तो उन्होंने मुअज्जम को ही ओरंगजेब के विरुद्ध भड़काना शुरू कर दिया 
" तेरे पास बल है , बुद्धि है , तू लगता भी सुल्तान जैसा है।  अपने बाप को मारकर तू अगर राजा हो भी जाए तो अपराध कौनसा है ? तेरे बाप ने भी तो अपने बाप को कैद किया था " मार दे अपने बाप को , और बन जा भारत का सुल्तान। ..
मुअज्जंम जसवंत सिंह की बातों में आ गया , और उसने अपने बाप के विरुद्ध ही विद्रोह कर दिया।  इस विद्रोह क़ी  जांच हुई तो सामने आया की , इसके पीछे भी जसवंत सिंह का ही हाथ है। उनसे दुबारा जसवंत जी से गुजरात  की मनसबदारी उनसे छीन  ली। 
जसवंत सिंह व[पस जोधपुर लौट आये ,  और अपने दरवार में कवियों एवं विद्वानों के बीच  अपना समय व्यतीत  करने लगे।   ओरंगजेब  ने जसवंत सिंह को सविनय दिल्ली आने  निमंत्रण भेजा। 
महाराज जसवंत सिंह ओरंगजेब का खत पाकर दिल्ली रवाना हुए , जिस दिन जसवंत सिंह दिल्ली पहुंचे , उस दिन उनपर  हमला भी हुआ था  , लेकिन जसवंत सिंह के निजी अंगरक्षक मुकुंन्ददास राठौड़  ने उस हमले को विफल कर दिया।  दूसरे दिन जब महाराज जसवंत सिंह का ओरंगजेब से राजसभा में सामना हुआ , तो जसवंत सिंह ने भरे दरबार  ओरंगजेब को ललकारा। .........  कायर ,, करना है  तो सामने से वार कर , पीठ पीछे क्या वार करता  है ??
यह सुनकर ओरंगजेब हक्का बक्का रह गया। ..
कुरआन की कसमें  खाकर उसने अपनी जान छुड़ाई  . उसी समय ही ओरंगजेब के दरबार में एक शेर पकड़ कर लाया गया। ........
शेर को देखकर ओरंगजेब ने कहा ,  इतना विशाल  शेर मेने आजतक नहीं देखा
जसवंत सिंह क्रोधित तो थे ही ओरंगजेब को ताना मारकर बोले  " ऐसे शेर तो हम राजपूतो के आँगन में खेलते है। 
ओरंगजेब ने इसे अपना निजी अपमान माना और जसवंत सिंह को चुनौती दे डाली, करवा दो अपने आँगन  के शेर का मुकाबला , मेरे इस आँगन  के शेर से। 
राजपूत कभी अपने वचन से नहीं हटता  ओरंगजेब। ..
वचन देकर  वे जोधपुर आ गए , किन्तु चिंतित थे , १२ साल के पुत्र पृथ्वीसिंह ने जान लिया की पिता चिंतित क्यों है ,
पृथ्वीसिंह ने जाकर अपने पिता से कहा , बस शेर से लड़ने की बात को लेकर इतनी चिंता क्यों पिताजी आपका यह शेर आपका मस्तिक कभी झुकने नहीं देगा पिताजी। 
जसवंत सिंह ने अपने पुत्र पृथ्वीसिंह को अपने गले से लगा लिया।  अपने शेर को लेकर वे दिल्ली पहुँच गए।  पृथ्वी सिंह और शेर की लड़ाई देखने पूरा दिल्ली एकत्रित हो गया।  १२ साल के पृथ्वीसिंह पर पुरे राजपुताना की  आन  बान  शान की लड़ाई आ गयी , पृथ्वीसिंह को शेर के पिंजरे में घुसा दिया गया , उस वीर बालक की आँख देखकर एकबार तो शेर घबरा गया  लेकिन भाले से उकसाये जाने के कारण वह पृथ्वीसिंह पर टूट पड़ा. .  पृथ्वीसिंह ने अपनी तलवार निकाल ली।  
शेर को मारने के लिए जैसे ही पृथ्वीसिंह ने तलवार निकाली, जसवंत सिंह ने अपने बेटे को ललकारा  .. शेर क्या हथियार लेकर लड़ रहा है पृथ्वीसिंह ? एक राजपूत कभी निहत्थों पर वार नहीं करता मेरे शेर। .
पिता के वचन सुनकर पृथ्वीसिंह ने अपनी तलवार फेंक दी , और देखते देखते अपनी दोनों भुजाओ से शेर का जबड़ा फाड़ डाला।    इस घटना  को देख ओरंगजेब सुन्न हो गया, सोचने  लगा , एक जसवंत सिंह ही कम नहीं थे , अब एक और। ..... अगर मारवाड़ की गद्दी पर अगला शाशक पृथ्वीसिंह हुआ , तो भारत से इस्लाम का नामोनिशान मिट जाएगा। 
धूर्त ओरंगजेब अब छल  करने के लिए पासे  फेंकने लगा। .. "  महाराज , क्या आपको नहीं लगता की जोधपूर का राजपाठ  अब आपके पुत्र को ही संभालना चाहिए।  जोधपुर की गद्दी अब पृथ्वीसिंह ही संभाल  सकते है , आप काबुल की मनसबदारी संभाले। 
जसवंत सिंह ने बेमन से काबुल की मनसबदारी संभाल ली , जब ओरंगजेब भारत में कोई मंदिर तोड़ता , तो जसवंत सिंह काबुल से सन्देश भिजवाते , तू वहां एक मंदिर तोड़ेगा ,  मै  यहाँ १० मस्जिद तोडूंगा।  इस तरह ओरंगजेब का जीना हराम कर रखा था
इन मल्लेछों में इतना साहस नहीं था , की सीधा राजपूतो  से टकरा जाए , ओरंगजेब ने इस बार बहुत ही घृणित  चाल चली , राजकीय चर्चा के लिए पृथ्वीसिंह को जोधपुर से दिल्ली बुलाया गया उनके ओरंगजेब ने पत्र लिखा। ...
" अधिपति।  अभी मारवाड़ का शाशन अपने पिता के स्थान पर आप ही संभाल  रहे है ,, राजनैतिक चर्चा पहले आपके पिता से हुआ करती थी , लेकिंन अब तो वे और मैं  हम दोनों ही बूढ़े होने लगे है।  मेरी आपसे विनती है , की आप दिल्ली पहुंचकर इस नाचीज़ को अपनी सेवा का मौका जरूर दे , इस बहाने राजनितिक बातें भी ह जायेगी।
कुंवर पृथ्वीसिंह इस पत्र को पाकर बहुत ही जीवंत समस्या में पड़  गए , अपने पिता तथा ओरंगजेब के बिच की कटुता को वे जानते थे, उन्हें संदेह तो हो गया था की इसके पीछे कोई गूढ़ रहस्य है ,किन्तु रहस्य क्या है , यह नहीं जान सके।  अपने पिता की तरह निर्भीक और निडर थे, तो दिल्ली आने  का निर्णय  ले लिया , दिल्ली पहुँचने पर पृथ्वीसिंह का ऐसा भव्य स्वागत हुआ , की छल  जैसी बातों को तो पृथ्वी सिंह भूल ही गए। महीने भर तक दिल्ली दरबार में पृथ्वीसिंह की बहुत सेवा हुई थी , उच्चतम सुविधाओं वाला महल उन्हें दिया गया।   जिस दिन वे जोधपुर के लिए वापस प्रस्थान करने वाले थे, उस दिन ओरंगजेब ने पृथ्वी सिंह को दो शाही रत्नो तथा शाही पाघ से सम्मानित किया , सम्मान के तौर  पर उन्हें शाही वस्त्र भी पहनाएं गए।  उन शाही वस्त्रो में ओरंगजेब ने विष मिलाया हुआ था।  जोधपुर पहुँचने से पूर्व ही पृथ्वीसिंह चक्कर खाकर गिर पड़े , और तड़प  तड़प  कर उनकी मृत्यु हो गयी।  ओरंगजेब ने इस तरह कायरतापूर्ण हरकत से जसवंत सिंह से बैर निकाला।  पृथ्वीसिंह की मृत्यु का समाचार पाकर जसवंत सिंह भी पूरी तरह से टूट गए , अब उनके जीवन में शेष बचा ही क्या था ? सारे स्वपन ख़ाक में मिल चुके थे , पृथ्वीसिंह की मृत्यु के १ वर्ष पश्चात जसवंत सिंह भी स्वर्ग लोक की और प्रस्थान कर गए। 
जसवंत सिंह की मृत्यु पर दिल्ली दरबार में जश्न मनाया गया।  मिठाई बांटते हुए ओरंगजेब ने कहा " आज तो काफिरियत का किला ढह गया है।

मंगलवार, 27 मार्च 2018

दुर्गादास राठौड़

जय दुर्गादास राठौड़

“शायद आश्विन के नौरात्र थे वे । पिताजी घर के सामने के कच्चे चबूतरे पर शस्त्रों को फैला कर बैठे हुए थे । उनके हाथ में चाँदी के मूठ की एक तलवार थी जिस पर वे घी मल रहे थे । माताजी पास में ही बैठी उन्हें पंखा झुला रही थी । दिन का तीसरा प्रहर था वह । सामने के नीम के पेड़ के नीचे हम सब बालक खेल रहे थे । बालकों की उस टोली में मेरे से छोटे कम और बड़े अधिक थे । उस दिन बहुत से खेल खेले गए और प्रत्येक खेल में मैं ही विजयी रहा । मेरे साथी बालक मेरी शारीरिक शक्ति, चपलता और तीव्र गति से मन ही मन मेरे से कुढ़ते थे और मैं अपने इन गुणों पर एक विजयी योद्धा की भाँति सदैव गर्व करता था । दो साँड़ों की अचानक लड़ाई से हमारे खेल का तारतम्य टूट गया । साँड़ लड़ते-लड़ते उधर ही आ निकले थे इसलिए सब बच्चे उनके भय से अपने-अपने घर दौड़ गए । मैंनें उन लड़ते हुए साँड़ों के कान पकड़ लिए । न मालूम क्यों उन्होंने लड़ना बन्द कर दिया । उनमें से एक साँड़ मुझे मारने ही वाला ही था कि मैं उसका कान छोड़ कर पूरी गति दौड़ पड़ा । वह साँड़ भी मेरे पीछे दौड़ पड़ा पर उसे कई हाथ पीछे छोड़ता हुआ मैं कूद कर माताजी की गोद में जा बैठा।…….’

“… मैंने अनुभव किया कि गर्म जल की एक बूंद मेरे गालों को छूती हुई नीचे जा गिरी । मैंनें उनपर देखा तो माताजी की ऑखे सजल थी ।’’
मैंने पूछा -“आप क्यों रो रही हैं ?’ उन्होंने एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए उत्तर दिया – ‘‘यों ही ।’

मैंने भूमि पर पैरों को मचलते हुए कहा – “सच बताओ ।’ वे मेरी हठी प्रवृत्ति को जानती थी । इसलिए बोली -“तुम्हें देख कर ऐसी ही भावना हो गई ।’
मैंने पूछा- क्यों? उन्होंने उत्तर दिया – ‘‘तेरी चपलता और तेज दौड़ को देख कर ‘‘

मैंने कहा -“इसी के कारण तो मैं सभी खेलों में जीता हूँ, इसलिए आपको तो प्रसन्न होना चाहिए ।’ उन्होंने कहा -“तेरी इस चपलता को देख कर मुझे डर होने लगा है कि कहीं तू मेरे दूध को न लजा दे ।’ मैंने पूछा -‘‘मैं आपके दूध को कैसे लजा दूँगा ?’ वे बोली – “डर कर यदि तू कभी युद्ध से भाग गया और कायर की भाँति कहीं मर गया तो दोनों पक्षों को लज्जित होना पड़ेगा । मेरे दूध पर कायर पुत्र की माता होने के कारण कलंक का अमिट धब्बा लग जाएगा । तेरी चपलता और गति को देख कर मुझे सन्देह होने लगा है कि कहीं तू इसी भाँति रणभूमि से न दौड़ जाए।”

“… मैं लज्जा और क्रोध से तिलमिला उठा । अब तक अपनी जिस विशेषता को मैं गुण समझ रहा था, वह अभिशाप सिद्ध हुई । मैं माताजी के सन्देह को उसी समय मिटाना चाहता था । मैंनें तत्काल निर्णय किया और माताजी की गोद से उठ कर पास में पड़ी हुई एक तलवार को उठा कर अपने पैर पर दे मारा । मैं दूसरा वार करने ही वाला था कि पिताजी ने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया और डांट कर पूछा- यह क्या कर रहा है ?’

मैंनें कहा -“ अपने पैर को काट कर माताजी का सन्देह मिटा रहा हूँ. एक पैर कट जाने पर मैं युद्ध-भूमि से भाग नहीं सकँगा|“
पैर से खून बह चला । पिताजी ने कहा – ‘‘यह लड़का बड़ा उद्दण्ड होगा । माताजी ने सगर्व नेत्रों से मेरे पैर के घाव को दोनों हाथों से ढक दिया।’

‘धर्मदासजी, यह घटना सत्तर वर्ष पुरानी है, पर लगता है जैसे कल ही घटित हुई ।“ यह कहते हुए वृद्ध सरदार ने अपनी आँखें खोली ।
“सन्निपात का जोर कुछ कम हुआ है, गुरूजी ?’ चरणदास ने कुटिया में प्रवेश करते हुए पूछा।

“यह सन्निपात नहीं है बेटा ! तुम शीघ्र जाकर खरल में रखी हुई औषधि का काढा तैयार कर ले आआो ।’’

रात्रि के सुनसान में धर्मदास जी की कुटिया धीमे प्रकाश में जगमगा उठी । नदी में जल पीने को जाता हुआ सुअरों का एक झुण्ड उस प्रकाश से चौकन्ना होकर डर्र-डर्र करता हुआ तेजी से दूर भाग गया । चरणदास ने धूनी में और लकडियाँ डालते हुए सुअरों को दूर भगाने के लिए जोर से किलकारी मारी । कुटिया के सामने बँधा हुआ घोडा अपनी टाप से भूमि खोदता हुआ हिनहिनाया । उस हिनहिनाहट की ध्वनि से नि:स्तब्ध वन में चारों ओर ध्वनि का विस्तार हो गया । सैकड़ों पशु-पक्षियों ने उस ध्वनि का अपनी-अपनी भाषा में प्रत्युत्तर दिया । थोड़े समय के लिए उस नीरव वन में एक कोलाहल सा मच गया । धर्मदास जी भी इस कोलाहल से प्रभावित होकर बाहर आए, देखा – चरणदास आग में पूँके मार रहा था ।

“शीघ्रता करो बेटा !’ कहते हुए उन्होंने समय का अनुमान लगाने के लिए आकाश की ओर देखा । पश्चिमी क्षितिज पर मार्गशीर्ष की शुक्ला दशमी का चन्द्रमा अन्तिम दम तोड़ रहा था । और फिर वे तत्काल ही कुटिया के भीतर चले गए ।

क्षिप्रा नदी के प्रवाह द्वारा तीन ओर से कट जाने के कारण एक ऊँचा और उन्नत टीला अन्तद्वीपाकर बन गया था । उसके पूर्व में विस्तृत और सघन वन था । लगभग तीस वर्ष पहले इसी स्थान पर क्षिप्रा के सहवास में धर्मदास जी ने तपस्या के लिए अपना आश्रम बनाया, धर्मदासजी के परिश्रम के कारण आश्रम एक सुन्दर तपोवन में परिवर्तित हो गया। था । तीन वर्ष पहले एक धनाढ्य युवक ने आकर उनसे दीक्षा ली थी । यही युवक चरणदास
के नाम से उनका शिष्य होकर विद्याध्ययन और गुरू-सेवा करने लगा । धर्मदास जी शास्त्रों के प्रकाण्ड पंडित, आयुर्वेद के पूर्ण ज्ञाता, तपस्वी और सात्विक प्रवृति-सम्पन्न महात्मा थे । उनके ज्ञान और तपोबल से आश्रम में सदैव शान्ति का वातावरण रहता था । एक कुटिया, कमण्डल, मिट्टी के कुछ पात्र, चिमटा, पत्थर की एक खरल, कुछ पोथियाँ और थोड़े से मोटे-मोटे ऊनी और सूती वस्त्र- बस यही उनकी सम्पति थी । वन के कन्द, मूल, फल और कभी-कभी चरणदास द्वारा प्राप्त भिक्षान्न द्वारा उनका निर्वाह सरलता से हो जाता था |

धर्मदास जी के इसी आश्रम पर दस दिन पूर्व संध्या समय वीर-भेष में एक वयोवृद्ध सरदार अतिथि के रूप में आए । उनका घोड़ा उन्नत, बलिष्ठ और तेजस्वी था । सरदार की वेश-भूषा, आकार-आकृति और व्यवहार में स्पष्ट रूप से सौम्यता, सरलता और अधिकार की व्यंजना होती थी । वे एक असाधारण व्यक्तित्व -सम्पन्न व्यक्ति थे । उस समय उन्हें हल्का ज्वर था । धर्मदासजी ने अतिथि का यथायोग्य सत्कार किया । वे प्रात:काल उठ कर जाना चाहते थे पर उनके बिगड़ते हुए स्वास्थ्य को देख कर धर्मदासजी ने आग्रह करके उन्हें वहीं रोक लिया । वे दस दिनों से सावधानीपूर्वक उनकी चिकित्सा कर रहे थे पर रोग घटने के स्थान पर बढ़ता ही चला जा रहा था । उस रात को धर्मदासजी को विश्वास हो गया था कि अब सरदार का अन्तिम समय आ पहुँचा है ।

“मैं आज निर्धन और असहाय हूँ, धर्मदासजी इसीलिए आपसे सेवा कराने के लिए विवश हूँ ।’ सरदार ने अपनी घास की शय्या पर हाथ फेरते हुए कहा । ‘‘कयों मेरी सेवा से क्या आपति है महाराज?‘‘ ‘‘आप महात्मा हैं और मैं . |”
‘ऐसे मत कहो दुर्गादासजी, आप महात्माओं के भी पूजनीय हैं ।“ आपकी त्याग और तपस्या के सामने हमारी तपस्या है ही कितनी ?’
‘‘पर आप ब्राह्मण जो हैं ।’’

“आप भी तो हमारे अतिथि हैं। अतिथि-सेवा से बढ़ कर पुण्य लाभ और क्या हो। सकता है ? और फिर आप जैसे अतिथि तो किसी भाग्यवान को ही मिलते हैं।’’

इतने में चरणदास काढा लेकर आ गया । धर्मदासजी ने दुर्गादास जी की नाड़ी देखते हुए उन्हें काढा पिला दिया । फिर उन्होंने पूछा – ‘गीता सुनाऊँ दुर्गादासजी ?

“नहीं धर्मदासजी, अब गीता सुनने का समय नहीं। अब उसे क्रियान्वित करने का समय है ।’’ काढा पीने से उनके शरीर में कुछ गर्मी आई । हाथ के संकेत से धर्मदासजी को अपने पास बुलाते हुए उन्होंने कहा – ‘मुझे सहारा देकर बैठा दो ।” धर्मदास जी ने घास का गट्ठर उनके सिरहाने रखते हुए उन्हें गट्टर के सहारे बैठा दिया ।

‘धर्मदास जी सत्तर वर्ष पुरानी वह घटना अब ज्यों की त्यों याद आ रही है । मेरे इस शरीर में छोटे-बड़े अनेकों घाव हैं, पर न मालूम क्यों पैर वाले उस छोटे से घाव में आज पीड़ा अनुभव हो रही है । मुझे ऐसा लग रहा है कि वह माताजी के सामने किए गए संकल्प की मुझे याद दिला रहा है। यह कह कर उन्होंने बाँई पिण्डली के उस घाव पर हाथ फेरना प्रारम्भ कर दिया ।

“कभी-कभी अन्य लोकों में पहुँच जाने के उपरान्त भी हमारी शुभचिन्तक आत्माएँ हमारा परोक्ष रूप से मार्गदर्शन करती और हमें अपने कर्त्तव्य का स्मरण दिलाती रहती हैं ।’’

“हाँ, धर्मदासजी ! मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि जैसे माताजी का सन्देश कोई मेरे कानों में कह रहा है ।‘‘
इतना कह कर उन्होंने अपनी गर्दन के नीचे किसी सहारे के लिए संकेत किया । धर्मदासजी ने अपना ऊनी कम्बल उनकी गर्दन के नीचे रख दिया ।

“पर धर्मदासजी, मैं कभी डर कर युद्ध-भूमि से भागा नहीं। काबुल की बफॉली घाटियों में सैकड़ों पठानों को हम दो-तीन आदमी अपने वश में कर लेते थे । वे भीमजी कितने बहादुर थे । वे थे तो हमसे बड़े पर अफीम खाने के कारण हम उन्हें अमलीबाबा ही कह कर पुकारते थे । बड़े दरबार भी उन्हें अमलीबाबा ही कहा करते थे ।’

“….. हाँ तो एक दिन मीर के एक पठान पहलवान ने आकर कहा कि राठौड़ी लश्कर में मुझसे लड़ने वाला कौन है ? इतना सुनना था कि अमलीबाबा तलवार लेकर सामने आ खड़े हुए । उनके दुबले-पतले शरीर को देख कर पठान पहलवान खूब हँसा । मैंनें तलवार की मूंठ पर हाथ रखा पर दरबार ने इशारे से मुझे बैठा दिया । बात की बात में पहलवान ने अमली बाबा को अपने भाले की नोंक से पिरो कर उलटा लटका दिया और खड़ा कर दिया । दरबार का लज्जा के मारे मुँह नीचा हो गया। । इतने में कोई गूंज उठा ‘‘रण बंका राठौड़ सब लश्कर ने एक साथ दोहराया “रण बंका राठौड़’ इतना सुनना था कि अमलीबाबा ने अपने पेट का एक जोरदार धक्का नीचे की ओर दिया । भाला उनके शरीर को चीरता हुआ ऊपर निकलता गया और अमलीबाबा नीचे की ओर सिरकने लगे । ज्योंही पहलवान के सिर से एक हाथ ऊपर रहे तलवार का एक ऐसा हाथ मारा कि उस पठान का सिर भुट्टे की तरह कट कर दूर जा गिरा ।”

‘अब थोड़ा विश्राम कीजिए दुर्गादास जी ॥“

“मैंनें जीवन में कभी विश्राम नहीं किया धर्मदासजी । अब महाविश्राम करने जा रहा हूँ, इसलिए इस क्षणिक विश्राम की आवश्यकता ही क्या है ?’
‘‘दिल्ली में रूपसिंह राठौड़ की हवेली में अपने स्वामी की राणियों को जौहर-स्नान करा कर मैं शाही लश्कर को काटता हुआ निकल गया । सैकड़ों बार मैं शाही लश्कर को काटता हुआ इधर से उधर निकल गया पर डर कर एक बार भी नहीं भागा । मैंनें माताजी के दूध को कभी नहीं लजाया धर्मदासजी ।’

“……………..मैंने सदैव औरंगजेब के प्रलोभनों को ठुकराया, घाटी की लड़ाई में औरंगजेब की बेगम गुलनार को कैद करके उसके साथ भी सम्मान का व्यवहार किया, अकबर के बाल-बच्चों को अपने ही बच्चों की भाँति लाड़-प्यार से रखा – पराजित शत्रु पर कभी वार नहीं किया । मैंनें स्वधर्म का उल्लंघन नहीं किया धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी |”

“….. मैंनें अपने स्वामी के द्वारा सौंपे गए कर्त्तव्य को भली-भाँति पूरा किया । तीस वर्षों के निरन्तर संघर्ष के उपरान्त मरूधरा आज स्वतंत्र हुई । मेरे स्वर्गीय स्वामी महाराज जसवन्तसिंहजी के आत्मज जोधपुर की गद्दी पर विराजमान हैं । चामुण्डा माता उनका कल्याण करें । अजीतसिंह जी जन्मे ही नहीं थे उसके पहले ही मैंनें उनकी सुरक्षा का वचन अपने स्वामी को दिया था । आज वे पूर्ण युवावस्था में जोधपुर की गद्दी पर आसीन हैं – मेरे कर्त्तव्य की इतिश्री हुई । मैंनें स्वामी-सेवक धर्म का भली-भाँति पालन किया है धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी ।’

“…. मैंनें शत्रु को कभी विश्राम नहीं करने दिया और न कभी मैं विश्राम से सोया। नींद मैंनें घोड़े की पीठ पर ही ली, बाटी मैंनें भाले से घोड़े की ही पीठ पर से सेकी और खाई उसे घोड़े की ही पीठ पर । मैंनें राजस्थान के प्रत्येक वन, पहाड़, नदी, नाले, पर्वत और घाटी को छान डाला पर कर्त्तव्य की भावना को कभी ओझल नहीं होने दिया धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी ।’

इतना कह कर दुर्गादास जी ने तीन बार हरि ओम तत्सत् का उच्चारण किया और एक जंभाई ली । धर्मदास जी ने कहा -“आप मारवाड़ के ही नहीं भारत के सपूत हैं दुर्गादास जी । वह जननी बड़ी भाग्यशालिनी है जिसने आप जैसे नर-रत्न को जन्म दिया है |”
“पर अब मैं उसके दूध को लजा रहा हूँ धर्मदासजी ॥“

“हैं ! यह आप क्या कह रहे हैं दुर्गादास जी ? आपका कोई कार्य ऐसा नहीं है जो शास्त्र, धर्म, मयदिा और कर्त्तव्य के विरूद्ध हो ।’
“हैं धर्मदासजी ! माताजी मुझे भीष्मजी की कहानी सुनाया करती थी और कहा करती थीं कि आदर्श क्षत्रिय वही है जिसे भीष्मजी की सी मृत्यु प्राप्त होने का सौभाग्य हो । वे शैया की मृत्यु को कायर की मृत्यु कहा करती थी और आज मैं तृण-शैया पर कायर की भाँति प्राण त्याग रहा हूँ । क्या यह उनके दूध को लजाने के लिए पर्याप्त नहीं है धर्मदास जी ?’

“शास्त्रों में इस प्रकार की मृत्यु .. ॥“ “शास्त्रों के नहीं, वर्तमान अवसर के अनुसार यह मृत्यु वीरोचित नहीं है ।’

अन्तिम शब्द दुर्गादास जी ने कुछ ऊँचे स्वर से कहे थे। अपने स्वामी का स्वर सुन कर कुटिया के सामने बँधा हुआ घोड़ा जोर से हिनहिना उठा । स्वामी की रूग्णावस्था का अनुमान लगा कर उस मूक पशु ने तीन दिन से दाना-पानी और घास बिल्कुल छोड़ दिया था । निरन्तर उसकी आँखों से आँसू टपक रहे थे । उसकी हिनहिनाहट सुन कर दुर्गादासजी को उसकी स्वामी-भक्ति और कृतज्ञता का स्मरण हो उठा । उनके विशाल नेत्रों में से भी कृतज्ञता का स्त्रोत फूट पड़ा और उनकी श्वेत दाढ़ी में मोतियों का रूप धारण कर उलझ गया । दोनों की आत्मा का अन्तर दूर हो गया । दोनों ने मूक रहते हुए ही एक दूसरे की भावना और विवशता को समझ लिया ।

“धर्मदासजी मेरे घोड़े पर जीन कराइए। मैं आज मृत्यु से युद्ध करूँगा । इस शैया पर आकर वह मुझे दबोच नहीं सकती ।’

यह कहते हुए दुर्गादास जी एक बालक की-सी स्फूर्ति से उठे और कवच तथा अस्त्रशस्त्र बाँधने लगे । चरणदास ने गुरू की आज्ञा पाकर तत्काल ही घोड़ा तैयार कर दिया । दुर्गादासजी ने धर्मदासजी के चरणों पर श्रद्धा सहित प्रणाम किया और वे उसी स्फूर्ति सहित घोड़े पर जा सवार हुए । धर्मदास जी भली भाँति जानते थे कि दुर्गादास जी अब इस संसार में कुछ ही घड़ियों के मेहमान हैं पर उस समय उनके मुख मण्डल पर व्याप्त अद्भुत तेजस, प्रकाश और लालिमा को देख कर उनको रोकने का उन्हें साहस न हुआ। “बुझने के पहले दीपक की लौ की भभक है यह ।“ उन्होंने मन ही मन गुनगुनाया ।

इधर प्राची में भगवान मार्तण्ड अपने सहस्त्रों करों द्वारा उदयाचल पर आरूढ़ हुए, उधर जोधपुर दुर्ग में नक्कारे और शहनाइयाँ बज उठी । सुरा, सुन्दरी और सुगन्धि की उपस्थिति विगत रात्रि के महोत्सव की सूचना दे रही थी । मारवाड़ के उद्धार की ऐतिहासिक स्मृति के उपलक्ष में आयोजित महोत्सव-श्रृंखला में उस रात का महोत्सव सर्वोत्तम था । मारवाड़ के स्वातन्त्र्य संग्राम में लड़ने वाले योद्धाओं को जी खोल कर इनाम, जागीरें और ताजीमें दी गई और उसी समय क्षिप्रा नदी के किनारे राठौड़ वंश का उद्धारक, मारवाड़ राज्य का पुनर्सस्थापक निर्धन, निर्जन और असहाय अवस्था में जननी जन्म-भूमि से सैंकड़ों कोस दूर निर्वासित होकर मृत्यु से अन्तिम युद्ध की तैयारी में तल्लीन था । न उसके मुख पर क्लेश था, न पश्चाताप और न शोक । सुदूर प्राची में आकाश का सूर्य उदय हो। रहा था और दूसरी ओर जोधपुर से सैकड़ों कोस दूर निर्जन एकान्त में राठौड़ वंश का सूर्य सदैव के लिए अस्त हो रहा था । अपने जीवन में उस दिन कृतघ्नता सबसे अधिक हँसी, खेली और कूदी, जिसके पाद प्रतिघातों से आक्रान्त होकर उन्नत-लहर क्षिप्रा शरदकालीन शान्त प्रवाह में अपने गौरवशाली अस्तित्व को परिव्याप्त करते हुए सदैव के लिए व्याप्त हो गई ।

प्रातःकाल वालों ने देखा कि भूमि में भाला गाड़े हुए समाधिस्थ योगी की भाँति घोड़े की पीठ पर एक वृद्ध योद्धा बैठा था, न वह हिलता था और न किसी प्रकार की चेष्टा ही करता था । घोड़े की निस्तेज आँखों में से निरन्तर टप-टप आँसू टपक रहे थे, पर हिलता वह भी नहीं था। धर्मदासजी की कुटिया पर यह संवाद पहुँचते ही तत्काल वे वहाँ पर पहुँच गए, देखा –

घोड़े की पीठ पर से बाटी सेकने वाला और उसी पर निद्रा लेने वाला आज उसी की पीठ पर बैठ कर महानिद्रा की गोद में सो गया है। उनके मुँह से इतना ही निकल पड़ा –

“धन्य है दूध की लाज’ और दूसरे ही क्षण वे बच्चों की भाँति फूटकर रो पड़े।

✍✍
लेखक : स्व.आयुवान सिंह शेखावत, हुडील

सोमवार, 19 मार्च 2018

कठै रिवी बे बातां।

बे बातां
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_माथो गोलमटोल रेंवतो_
_बिचमें रेंती चोटी।_
_दूध दही रा ठाट रेंवता_
_घी में गलगच रोटी।_

*साबण तेल री कठै जरुरत*
*नाडी पर ही न्हायांता।*
*कपडा झिबल सुखाय लेंवता*
*खंखोली खायांता।*

_आठानां रा पाव भडा म्हैं_
_खडा खडा खायांता।_
_पगरखी में पाणीं लेकर_
_दोय नंबर जायांता।_

लूट लूटकर मांझो ल्यांता
पछे लगांता गांठां।
पाठा फाड पतंग बणांता
बो काटा बो काटा।

*चौमासा में बिरखा आंती*
*खोल भगांता गाबा।*
*नंग धडंग नाचता गांता*
*म्है बाबा म्हे बाबा।*

_पाटी भडता पोथी लेकर_
_पोसालां में जांता।_
_गुरुजी नें देख आंवता_
_म्हैं मिनक्यां बण ज्यांता।_

*कान पकडकर मुरगा बणता*
*ऊपर पडती लातां।*
*टाटपट्यां गीली कर देंता*
*याद आवे बे बातां।*

_लारे डब्बा बीस लागता_
_खुद इंजन बण ज्यांता।_
_सिंगल री परवा नीं करता_
_छुक छुक रेल चलांता।_

*गुदडां में लुटता हंसता*
*अधगेला हो ज्यांता।*
*आडा टेढा पसता पसता*
*दस भेला सो ज्यांता।*

_तिरसिंगजी सुं डरता कोनीं_
_बिनां बात भिड ज्यांता।_
_भाटा फेंक भागकर मां री_
_गोदी में बड़ ज्यांता।_

*रेत मांयनें रामत मंडती*
*दिनभर मौज मनांता।*
*न्हाय धोयकर घर सुं जांता*
*भूत बण्योडा आंता।*

_सदा सुरंगा दिन हूंता हा_
_सदा सुहाणीं रातां।_
_मिनखपणो तो बो ही है पणं_
_कठै रिवी बे बातां।_

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