महाराज जसवंत सिंह राठौड़ - जोधपुर
महाराज जसवंत सिंह अपने समय के सबसे प्रभावी नेता थे , जिनका भय मुग़ल दरबार में भी बराबर बना रहता था। यह भारत के बच्चो का दुर्भाग्य है , की आज तक आजादी के ७० सालो बाद भी वे अपने ही राजाओ - महाराजाओ का वास्तविक इतिहास तक पढ़ नहीं पाए है। महाराज जसवंत सिंह ने मुगलो की मनसबदारी स्वीकार कर ली थी , या वे मुगलो के दरबार में चले गए थे , यह कहकर जसवंत सिंह के बारे में अलग ही सोच भारतीयों के मन में इस वामपंथी इतिहासकारो ने भर दी। हिन्दू राजा मुग़ल दरबार में क्यों गए , उन्होंने मनसबदारी क्यों ली , यह वामपंथी इतिहासकारो ने कभी स्पष्ट नहीं किया। हमे जरूरत है , वास्तविकता जानने की। .
अगर महाराज जसवंत सिंह मुगलो से गुजरात की मनसबदारी ना लेकर , गुजरात की जनता को , ३ -३ मुस्लिम नवाबो के बीच पीसने के छोड़ देते वह ज़्यादा अच्छा होता , या गुजरात की मनसबदारी लेना ज़्यादा अच्छा था ? बस महाराज जसवंत सिंह ने यह जो समझदारी दिखाई थी , इसी तरह की समझदारी दिखाने में हिन्दू राजा कुछ देरी कर गए थे , हिन्दू धर्म को बचाने में आज जसवंत सिंह का योगदान कहीं भी महाराणा प्रताप।, शिवाजी , या बाजीराव पेशवा से कम नहीं है , लेकिन हमारे इतिहासकारो की मनमर्जी ने जसवंत सिंह के इतिहास को कुछ और भी रंग दे दिया है , एक अलग ही छवि जनमानस के मन में राजा जसवंत सिंह से लिए तैयार कर दी है। महाराज जसवंत सिंह केवल विद्वान ही नहीं , एक तत्व ज्ञानी पुरुष भी थे। उनके समय में जोधपुर राज्य में विद्या तथा ज्ञान की बड़ी चर्चा रहती थी , अपने कविओ तथा विद्वानों का उनके द्वार बराबर समागम होता रहता था। महाराज जसवंतसिंह शास्त्रों तथा वेदों के भी प्रकांड पंडित थे।
महाराज जसवंत सिंह का जन्म ६ जनवरी १६२९ को जोधपुर में ही हुआ। आप महाराज गजसिंह के कनिष्क पुत्र थे। महाराज गजसिंह ने ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंह की उदंडता को देख महाराज जसवंत सिंह को राजपाठ सौंपा था। मात्र १० साल की आयु में जनवरी १६३९ को जसवंत सिंह जोधपुर की राजगद्दी पर बिराजमान हुए।
जनस्मृतियो में महाराज जसवंत सिंह जो को लेकर एक कथा है , महाराज जसवंत सिंह एक बार अपने पिता के साथ किसी युद्ध में गए थे , वहां युद्ध में भयंकर मारकाट देख युद्ध बीच में ही छोड़ वापस महल लौट आये। जब उनकी माता को पता चला की जसवंत सिंह युद्ध के बीच से वापस लौट के आये है , तो उन्हें जीवन सीख देने के लिए माता ने एक तरीका ढूंढ निकाला। ..
जसवंत सिंह जी को आज भोजन काठ के बर्तनो में परोसा गया बालक जसवंत सिंह ने जब अपनी माता से काठ के बर्तनो में भोजन परोसने का भेद पूछा , तो माता ने कहा , लोहे की आवाज सुनकर ही तुम युद्ध मैदान से डरकर वापस लौट आये , कहीं बर्तनो की आवाज सुनकर , डरकर महल छोड़कर ना चले जाओ , इसलिए मेने आपको काठ के बर्तनो में खाना दिया है।
माता के यह वचन सुनकर बालक जसवंत सिंह के रोंगटे खड़े हो गए। " माता रणखेतो में अब आप मेरी तलवार की धार ही देखना " यह कहकर जसवंत सिंह उसी क्षण युद्ध भूमि के लिए रवाना हो गयी थी।
१६४२ आसपास ईरान के इस्लामी गुंडों के एक समूह ने काबुल के पासपास के क्षेत्र को लूटना चाहा , जसवंत सिंह की आयु उस समय केवल १३ वर्ष की थी , लेकिन फिर भी इतने बड़े अभियान की जिम्मेदारी शाहजहां ने जसवंत सिंह को सौंपकर कहा " मेरे शत्रु का सर कुचल कर रख दो। महाराज जसवंत सिंह ने वहीँ किया। काबुल में जिस तरह जसवंत सिंह ने विद्रोही पठानों और विदेशी आक्रमणकारी आक्रांताओ को जसवंत सिंह ने कुचल कर रख दिया था , इससे जसवंत सिंह का कद मुग़ल दरबार में बहुत ही ज़्यादा बढ़ गया था। जसवंत सिंह की ख्याति इतनी बढ़ गयी की बादशाह ने उन्हें आगरा का सूबेदार नियुक्त कर दिया। शाहजहां को अपने बुढ़ापे तक यह समझ आ गया था , की उसके दुस्ट औलादो से उनकी रक्षा केवल महाराज जसवंत सिंह जी कर सकते है।
१६५८ के आस पास मुग़ल शाशन के प्रदेश में ग्रहयुद्ध की शुरुवात हो गयी , शाहजहां को मूत्रकच्छ रोग जैसी गुप्त बीमारियां हो गयी थी। उसने इसी समय जसवंत सिंह को अपना सबसे प्रमुख दरबारी चुना , और अपने बड़े बेटे दाराशिकोह को अपना उत्तराधिकारी चुनना चाहा। दाराशिकोह ने भी शाशन के सारे अधिकार बड़े गुपचुप तरीके से अपने हाथ में ले लिए , सभी मंत्रियों को गोपनीयता की यह शर्त भी खिला दी , की उसके तीन भाइयो को उसके राजतिलक की खबर ना पता चले। मुग़ल दरबार में इस तरह से धोखेबाजी से शाशन चल रहा था , शाहजहां की तीनो औलादो के बीच गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया , और उसकी सारी औलादो में यह होड़ मच गयी , की कौन पहले अपने बाप को बंदी बनाकर उसकी हत्या करें और उसका राज्य हड़प ले। ..
अब ऐसी स्तिथि में राजपूत क्या करते ?? शाहजहां ने जसवंत सिंह से आग्रह किया की वे ही अब उनके प्राणो की रक्षा करें और ओरंगजेब को रोके। २० अप्रेल १६५८ के आसपास का यह समय था। जसवंत सिंह के नेतृत्व मंक २०००० राजपूत ओरंगजेब को रोकने रवाना हुए , और शाहजहां ने अपनी सेना का नेतृत्व कासिम खान को देकर भेजा।
मक्कार लोमड़ी ओरंगजेब ने भी झूठ का बहुत बड़ा प्रपंच रचा। उसने अपने भाई मुराद को बहुत ही स्नेह भरे पत्र में लिखा की , उसकी इच्छा है की मुराद अगला सुल्तान बने। और ओरंगजेब स्वम् मक्का चला जाए , इस धूर्त की इन चिकनी चुपड़ी बातों में फंस मुराद भी अपने बाप के विरुद्ध हो गया। और तो ओर ओरंगजेब ने इस युद्ध से पूर्व जिहाद का ऐसा नारा लगाया की सारे के सारे मुस्लमान सैनिक उसी की तरफ हो गए , जो सैनिक शाहजहां की तरफ से लड़ने के लिए आये थे , उन्हें भी ओरंगजेब ने भड़का दिया , की में यह युद्ध अपने लिए नहीं , इस्लाम के लिए लड़ रहा हूँ. जिस शाहजहां की रक्षा के लिए जसवंत सिंहगः जोधपुर से चले थे , उसी शाहजहां से सैनिक इस्लाम के नाम पर उल्टा हिन्दुओ पर ही प्रहार करने लगे। लेकिन यौद्धा की पहचान तो विषम परिस्थिति में ही होती है। संकट के समय ही वीर अपना सर्वनीम इतिहास लिखते है। नदी नर्मदा पर हुए इस युद्ध में मात्र २०००० राजपूत जवान मुगलो की लाखो की सेना से भीड़ गए। राजपूतो की चमकती दमकती तलवारो के आगे एक बार तो मुग़ल अंधे से ही हो गए , खुद जसवंत सिंह घोड़े पर सवार होकर दोनों हाथों में तलवार लेकर दुशमनो का ऐसे शिकार कर रहे थे , जैसे भेड़ो के रेवड़ से सिंह लड़ जाता है। जसवंत घोड़े समेत रक्त में नहा गए। मल्लेछों को गाजर मूली की तरह काट काट कर फेंका गया। बाकी जो ज़िंदा बचे वे या तो मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए , या जसवंत सिंह के पांवों में लोटपलेटे खा अपने प्राणो की भीख मांगते रहे। राजपूतो को भी इस युद्ध से भरी नुकसान हुआ , २०००० राजपूतो में से केवल ६०० राजपूत शेष बचे। जब राजपूत अपने बचे कूचे सेनिको के साथ जोधपुर लौटकर आये तो उनकी रानी चंद्रावती ने दुर्ग का गेट खोलने से मना कर दिया। उसने दरबान से कहा " जो बाहर आया है , वह नकली होगा , मेरा पति युद्ध करते करते वीरगति को प्राप्त हो गया है , तुम मेरे सती होने की तैयारी करो , मेरा पति युद्ध बीच में छोड़कर वापस नहीं आ सकता।
दरअसल रानी चंद्रावती मेवाड़ की राजकुमारी थी। शाहजहां ने अपने बेटे ओरंगजेब के लिए मेवाड़ राजघराने से चंद्रावती का रिश्ता माँगा था , मेवाड़ के स्वाभिमानी राजपूतो ने मुग़लो को दुत्कार कर वापस लौटा दिया , इससे क्रुद्ध हो शाहजहां ने मेवाड़ पर आक्रमण करवा दिया , मेवाड़ की सेना का तो यह मल्लेछ कुछ बिगाड़ सके नहीं , लेकिन इन मानवता से हीन लोगो ने बहुत ही काफिर महिलाओ को बंदी बना लिया था ,, जिसने एक नीच जात ईसाई महिला भी थी , वह बड़ी सुंदर कन्या थी , उसे ओरंगजेब ने अपने लिए परमानेंट रख लिया था , और उसी ईसाई महिला को ओरंगजेब ने " उदयपुरिया रानी " कहकर लिखवाया था। उदयपुर की राजकुमारी चंद्रावती का विवाह तो जोधपुर के महाराज जसवंत सिंह जी से हुआ था। रानी चन्द्रवती एक वीरपत्नी थी , जो सदैव अपने पति महाराज जसवंत सिंह को विजय की प्रेरणा देती थी , रानी चंद्रावती इतनी योग्य रानी थी , की महाराज जसवंत सिंह की अनुपस्थिति में पूरा राजपाठ वे अपने हाथ में ले लेती थी।
इस युद्ध से पहले जसवंत सिंह जी , और चंद्रावती ने यही सोचा होगा , मल्लेछ जब आपसी दंगे में खत्म हो जाए , तो राजपूत इन मल्लेछों पर निर्णायक आक्रमण और इनपर बड़ा प्रहार कर इन्हे जड़ से ही खत्म कर दे , इस योजना के जसवंत सिंह बहुत करीब पहुँच भी चुके थे। लेकिन जसवंत सिंह की पराजय देखकर रानी चन्दावती ने अपना आपा खो दिया।
इसी दुःख में उन्होंने अपने पति से कहा " आप युद्ध भूमि से वापस लौट आये , इससे अच्छा तो आप वहीँ शहीद हो जाते , कम से कम मुझे वीरपत्नी कहलाने का सौभाग्य तो प्राप्त होता , मैं भी सती हो जाती।
इसपर महाराज जसवंत सिंह जी ने जवाब दिया - " रानी आप पहले बात पूरी जान लेंवे उसके बाद भी आपको हमसे कोई शिकायत रहें , तो आपको वचन देते है , इसी समय युद्ध भूमि के लिए वापस निकल जाएंगे।
यह सुन रानी चंद्रावती स्वम् दुर्ग के बाहर आयी , तब सारे सेनिको ने युद्ध में बीती कथा कह सुनाई , की किस तरह शाही सेनिको ने धोखा देते हुए उन्ही सेनिको पर प्रहार करना शुरू कर दिया , जिन सेनिको की सहायता करने राजपूत सुरमा निकले थे। महाराज जसवंत सिंह ने चंद्रावती से कहा , हम सभी का यही सोचना था , ओरंगजेब और उसकी भाई की सेना का सफाया करके सीधे आगरा पर पर हमला करना है , लेकिन शाही सेना को जहाँ ओरंगजेब की सेना के विरुद्ध युद्ध करना था , उन्होंने अपने हथियार हमारी गर्दनो पर रख दिए , ६०० राजपूतो को छोड़ हमारे सारे वीर सैनिक मारे गए , , और इन ६०० सेनिको के साथ आगरा पर हमला करना , मुझे समझदारी का काम नहीं लगा , आप क्या कहती है महारानी ??
रानी चंद्रावती को अपराध बोध हुआ। ... यह उन्होंने ये क्या कर , जहाँ उन्हें जसवंत सिंह की वीरता पर उनका स्वागत पुष्पवर्षा के साथ होना चाहिए था,और कहाँ उन्होंने अपमानजनक शब्दों के कांटे बिछाये थे।
रानी चंद्रावती ने दोनों हाथ जोड़कर जसवंत सिंह जी से कहा - " क्षमा कर दीजिये महाराज , विजय की आशा में , मैं इतनी अंधी हो गयी थी , की मेने वास्तविक घटना को जानना ही उचित नहीं समझा।
जसवंत सिंह तपो जोधपुर लौट आये , किन्तु वहां बाप बेटो का गृहयुद्ध चालु था , हार के बाद शाहजहां द्वारा घोषित सुल्तान दारा शिकोह अपनी मामूली सैनिक टुकड़ी लेकर इधर उधर मारा भागा घूम रहा था। अंत में शाहजहां को कैद कर लिया गया , और दाराशिकोह को मार डाला गया। दाराशिकोह की क्षत विकृत लाश का पूरी दिल्ली में जुलुस निकाला गया , जिस तरह वाहियात आतंकवादी आज ईरान , इराक़ , सीरिया आदि में तांडव करते है , उसी तरह से ड्रामे मध्यकाल के मुस्लमान भारत में करते थे। शाहजहां के बंदी बनने के बाद , और दाराशिकोह के वध के बाद बाकी के शाहजहां के चिरागो का सिरछेदन कर ओरंगजेब सभी हिन्दू मंदिरो को मस्जिद में परिवर्तित करने , अपनी प्रजा को लूटने तथा उसका संघार करने का कलंकित जीवन जीने लग गया।
नर्मदा नदी के किनारे हुए लड़ाई के बाद ओरंगजेब अच्छे से जान गया था , की जसवंत सिंह आखिर किस बला का नाम है। उसी समय गुजरात और महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज ने ओरंगजेब का जीना हराम कर रखा था। ओरंगजेब इन दोनों शक्तियों "जसवंत सिंह और शिवाजी " से एक साथ लड़ने में सक्षम नहीं था , अतः ओरंगजेब को इनमे से किसी एक से मित्रता करनी थी , और किसी एक से शत्रुता। ओरंगजेब ने जसवंत सिंह से मित्रता की , और शिवाजी महाराज से शत्रुता , वह धूर्त यह चाहता था , की जसवंत सिंह से मित्रता कर , जसवंत सिंह के ही हाथो शिवाजी का नाश करवा देगा।
ओरंगजेब ने बड़ी ही धूर्तता से चाशनी में डुबोकर जसवंत सिंह जो राजधर्म जैसी बड़ी बड़ी बातें करते हुए एक पत्र लिखा जसवंत सिंह समझ गए , की इसके पीछे कोई विशेष कारण अवश्य है , उन्होंने ओरंगजेब के इस मैत्री सम्बन्ध की पेशकश की सुचना शिवाजी महाराज को भी दे दी। गुजरात पर उस समय शिवाजी का दबदबा था। शिवाजी महाराज ने जसवंत सिंह से कहा , आप इस मित्रता के बदले ओरंगजेब से गुजरात की मनसबदारी मांग ले।
ओरंगजेब धूर्त था , तो शिवाजी तथा जसवंत सिंह उससे दुगना होशियार थे , जसवंत सिंह ने गुजरात की मनसबदारी कुछ सोच समझ कर ही ली थी। जसवंत सिंह के गुजरात चले जाने के बाद शिवाजी और इनके बीच निकटता और बढ़ गयी , शिवाजी महाराज जसवंत सिंह जी द्वारा दिए जा रहे सहयोग दान से बहुत प्रसन्न हुए , दोनों वीरो ने मिलकर मल्लेछ शाशन के विरुद्ध षड्यंत्र रचना आरम्भ कर दिया। यदि यह सब कुछ और दिन छुपा रह जाता , तो शिवाजी और जसवंत सिंह मिलकर आगरा के दुर्ग में ही उस मल्लेछ राक्षस की मुड़ टांग देते , ओरंगजेब ने अपने मामा साइस्ता खान को शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा था , लेकिन जो दुर्गति शाइस्ता खान की हुई , ओरंगजेब को यह ज्ञात हो गया , की यह एक कौम के लोग आपस में मिल गए है। उसने जसवंत सिंह से गुजरात की मनसबदारी वापस ले, यह मनसबदारी जयपुर के जयसिंह जी को दे दी। इन्ही जयसिंह जी की मध्यस्था में ही शिवाजी को ओरंगजेब के दरबार बुलाया गया था , संधि और शांतिवार्ता के बहाने शिवाजी कर लिया गया। जयसिंह को ओरंगजेब ने वचन दिया था , की वह शिवाजी से सिर्फ वार्ता करना चाहता है , उनका अहित नहीं करना चाहता , किन्तु ओरंगेजब ने जयसिंह और शिवाजी दोनों को धोखा दिया , जयसिंह जी ने भी उसके बाद फूलो की टोकरी में छुपाकर शिवाजी को आजाद करवा लिया था , इसका दंड भी जयसिंह जी को दिया गया , गुजरात की मनसबदारी उनसे छीन दुबारा जसवंत सिंह जी को सौंप दी गयी।
यही तो जसवंत सिंह जी चाहते थे , लेकिन इस बार ओरंगजेब ने जसवंत सिंह के साथ अपने एक बेटे मुअज्जम को भी कर दिया , जिससे की जसवंत सिंह और शिवाजी के मध्य कोई पत्राचार ना हो सके >..
गुजरात में जब कुछ करने का मार्ग अब जसवंत सिंह को नजर नहीं आया तो उन्होंने मुअज्जम को ही ओरंगजेब के विरुद्ध भड़काना शुरू कर दिया
" तेरे पास बल है , बुद्धि है , तू लगता भी सुल्तान जैसा है। अपने बाप को मारकर तू अगर राजा हो भी जाए तो अपराध कौनसा है ? तेरे बाप ने भी तो अपने बाप को कैद किया था " मार दे अपने बाप को , और बन जा भारत का सुल्तान। ..
मुअज्जंम जसवंत सिंह की बातों में आ गया , और उसने अपने बाप के विरुद्ध ही विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह क़ी जांच हुई तो सामने आया की , इसके पीछे भी जसवंत सिंह का ही हाथ है। उनसे दुबारा जसवंत जी से गुजरात की मनसबदारी उनसे छीन ली।
जसवंत सिंह व[पस जोधपुर लौट आये , और अपने दरवार में कवियों एवं विद्वानों के बीच अपना समय व्यतीत करने लगे। ओरंगजेब ने जसवंत सिंह को सविनय दिल्ली आने निमंत्रण भेजा।
महाराज जसवंत सिंह ओरंगजेब का खत पाकर दिल्ली रवाना हुए , जिस दिन जसवंत सिंह दिल्ली पहुंचे , उस दिन उनपर हमला भी हुआ था , लेकिन जसवंत सिंह के निजी अंगरक्षक मुकुंन्ददास राठौड़ ने उस हमले को विफल कर दिया। दूसरे दिन जब महाराज जसवंत सिंह का ओरंगजेब से राजसभा में सामना हुआ , तो जसवंत सिंह ने भरे दरबार ओरंगजेब को ललकारा। ......... कायर ,, करना है तो सामने से वार कर , पीठ पीछे क्या वार करता है ??
यह सुनकर ओरंगजेब हक्का बक्का रह गया। ..
कुरआन की कसमें खाकर उसने अपनी जान छुड़ाई . उसी समय ही ओरंगजेब के दरबार में एक शेर पकड़ कर लाया गया। ........
शेर को देखकर ओरंगजेब ने कहा , इतना विशाल शेर मेने आजतक नहीं देखा
जसवंत सिंह क्रोधित तो थे ही ओरंगजेब को ताना मारकर बोले " ऐसे शेर तो हम राजपूतो के आँगन में खेलते है।
ओरंगजेब ने इसे अपना निजी अपमान माना और जसवंत सिंह को चुनौती दे डाली, करवा दो अपने आँगन के शेर का मुकाबला , मेरे इस आँगन के शेर से।
राजपूत कभी अपने वचन से नहीं हटता ओरंगजेब। ..
वचन देकर वे जोधपुर आ गए , किन्तु चिंतित थे , १२ साल के पुत्र पृथ्वीसिंह ने जान लिया की पिता चिंतित क्यों है ,
पृथ्वीसिंह ने जाकर अपने पिता से कहा , बस शेर से लड़ने की बात को लेकर इतनी चिंता क्यों पिताजी आपका यह शेर आपका मस्तिक कभी झुकने नहीं देगा पिताजी।
जसवंत सिंह ने अपने पुत्र पृथ्वीसिंह को अपने गले से लगा लिया। अपने शेर को लेकर वे दिल्ली पहुँच गए। पृथ्वी सिंह और शेर की लड़ाई देखने पूरा दिल्ली एकत्रित हो गया। १२ साल के पृथ्वीसिंह पर पुरे राजपुताना की आन बान शान की लड़ाई आ गयी , पृथ्वीसिंह को शेर के पिंजरे में घुसा दिया गया , उस वीर बालक की आँख देखकर एकबार तो शेर घबरा गया लेकिन भाले से उकसाये जाने के कारण वह पृथ्वीसिंह पर टूट पड़ा. . पृथ्वीसिंह ने अपनी तलवार निकाल ली।
शेर को मारने के लिए जैसे ही पृथ्वीसिंह ने तलवार निकाली, जसवंत सिंह ने अपने बेटे को ललकारा .. शेर क्या हथियार लेकर लड़ रहा है पृथ्वीसिंह ? एक राजपूत कभी निहत्थों पर वार नहीं करता मेरे शेर। .
पिता के वचन सुनकर पृथ्वीसिंह ने अपनी तलवार फेंक दी , और देखते देखते अपनी दोनों भुजाओ से शेर का जबड़ा फाड़ डाला। इस घटना को देख ओरंगजेब सुन्न हो गया, सोचने लगा , एक जसवंत सिंह ही कम नहीं थे , अब एक और। ..... अगर मारवाड़ की गद्दी पर अगला शाशक पृथ्वीसिंह हुआ , तो भारत से इस्लाम का नामोनिशान मिट जाएगा।
धूर्त ओरंगजेब अब छल करने के लिए पासे फेंकने लगा। .. " महाराज , क्या आपको नहीं लगता की जोधपूर का राजपाठ अब आपके पुत्र को ही संभालना चाहिए। जोधपुर की गद्दी अब पृथ्वीसिंह ही संभाल सकते है , आप काबुल की मनसबदारी संभाले।
जसवंत सिंह ने बेमन से काबुल की मनसबदारी संभाल ली , जब ओरंगजेब भारत में कोई मंदिर तोड़ता , तो जसवंत सिंह काबुल से सन्देश भिजवाते , तू वहां एक मंदिर तोड़ेगा , मै यहाँ १० मस्जिद तोडूंगा। इस तरह ओरंगजेब का जीना हराम कर रखा था
इन मल्लेछों में इतना साहस नहीं था , की सीधा राजपूतो से टकरा जाए , ओरंगजेब ने इस बार बहुत ही घृणित चाल चली , राजकीय चर्चा के लिए पृथ्वीसिंह को जोधपुर से दिल्ली बुलाया गया उनके ओरंगजेब ने पत्र लिखा। ...
" अधिपति। अभी मारवाड़ का शाशन अपने पिता के स्थान पर आप ही संभाल रहे है ,, राजनैतिक चर्चा पहले आपके पिता से हुआ करती थी , लेकिंन अब तो वे और मैं हम दोनों ही बूढ़े होने लगे है। मेरी आपसे विनती है , की आप दिल्ली पहुंचकर इस नाचीज़ को अपनी सेवा का मौका जरूर दे , इस बहाने राजनितिक बातें भी ह जायेगी।
कुंवर पृथ्वीसिंह इस पत्र को पाकर बहुत ही जीवंत समस्या में पड़ गए , अपने पिता तथा ओरंगजेब के बिच की कटुता को वे जानते थे, उन्हें संदेह तो हो गया था की इसके पीछे कोई गूढ़ रहस्य है ,किन्तु रहस्य क्या है , यह नहीं जान सके। अपने पिता की तरह निर्भीक और निडर थे, तो दिल्ली आने का निर्णय ले लिया , दिल्ली पहुँचने पर पृथ्वीसिंह का ऐसा भव्य स्वागत हुआ , की छल जैसी बातों को तो पृथ्वी सिंह भूल ही गए। महीने भर तक दिल्ली दरबार में पृथ्वीसिंह की बहुत सेवा हुई थी , उच्चतम सुविधाओं वाला महल उन्हें दिया गया। जिस दिन वे जोधपुर के लिए वापस प्रस्थान करने वाले थे, उस दिन ओरंगजेब ने पृथ्वी सिंह को दो शाही रत्नो तथा शाही पाघ से सम्मानित किया , सम्मान के तौर पर उन्हें शाही वस्त्र भी पहनाएं गए। उन शाही वस्त्रो में ओरंगजेब ने विष मिलाया हुआ था। जोधपुर पहुँचने से पूर्व ही पृथ्वीसिंह चक्कर खाकर गिर पड़े , और तड़प तड़प कर उनकी मृत्यु हो गयी। ओरंगजेब ने इस तरह कायरतापूर्ण हरकत से जसवंत सिंह से बैर निकाला। पृथ्वीसिंह की मृत्यु का समाचार पाकर जसवंत सिंह भी पूरी तरह से टूट गए , अब उनके जीवन में शेष बचा ही क्या था ? सारे स्वपन ख़ाक में मिल चुके थे , पृथ्वीसिंह की मृत्यु के १ वर्ष पश्चात जसवंत सिंह भी स्वर्ग लोक की और प्रस्थान कर गए।
जसवंत सिंह की मृत्यु पर दिल्ली दरबार में जश्न मनाया गया। मिठाई बांटते हुए ओरंगजेब ने कहा " आज तो काफिरियत का किला ढह गया है।