गुरुवार, 30 नवंबर 2017

बीन्द रा काकोसा कुण

बीन्द रा काकोसा कुण है सा ?

मैं हूं सा ।

आप ढ़ोली नै 100 रिपिया दो सा ।'

काकोसा: मैं तो काकाबाबा में लागूं सा ।
..... .. ... बींद रा हगा काकोसा तो डेरा में है सा।

सुत मरियो बख्तर पहन

सुत मरियो बख्तर पहन,
  ब्याण दूध सवाय।
झीनी मलमल ओढ़ कर,
बहु बलण जाय।।

मतलब कि एक माँ अपने बेटे के रणभूमि में शहीद होने पर भी अपनी पुत्रवधू की माँ को पत्र लिख कर कह रही हैं कि मेरा बेटा तो युद्ध मे लोहे के बख्तर और कवच पहन के गया था, लेकिन आपकी बेटी तो सिर्फ झीणी मलमल ओढ़ कर प्रचंड अग्नि में जौहर कर दिया, वो मेरे बेटे से भी ज्यादा महान थी, आपका दूध मेरे दूध से भी ज्यादा सवाया हैं ।।

गुरुवार, 23 नवंबर 2017

सीयाले री खम्मा-घणी

ठण्ड पड़े है जोरगी, पतली लागे सौड़ ।
चाय पकौड़ी मुंफली, इण सर्दी रो तोड़ ।।

डांफर चाले भूंडकी , चोवण् लाग्या नाक ।
काम्वल  राखां ओढगे , सिगड़ी तापा हाथ ।।

काया धूजे ठाठरे,  मुँडो छोड़े भाप ।
दिनुगे पेली चावड़ी, न्हाणो धोणो पाप ।।

गूदड़ माथे गूदडा , ओढ्यां राखो आप ।
ताता चेपो गुलगुला, चा चेपो अणमाप् ।।

सीयाले री खम्मा-घणी

मंगलवार, 21 नवंबर 2017

चोर की चतुराई : राजस्थानी कहानी

एक राजा के राजमहल में एक नौकर था | उसकी चोरी करने की आदत थी | राजमहल में छोटी-मोटी चीजों पर अक्सर वह अपने हाथ की सफाई दिखा ही दिया करता था | हालांकि वह खुद तो छोटा चोर था पर उसकी दिली आकांक्षा थी कि उसका बेटा नामी चोर बने | एसा चोर बने जिसकी चोरी की बाते चलें | यही सोच उसने अपने बेटे को भी चोरी की कला का प्रशिक्षण दिया कई सारे चोरी के गुर सिखाये | फिर भी उसे तसल्ली नहीं थी कि पता नहीं उसका बेटा नामी चोर बन पायेगा या नहीं,क्योंकि वह खुद भी बूढ़ा हुआ जा रहा था | बेटा बड़ा हुआ तो वह भी राजमहल में बाप के साथ काम पर जाने लगा |
एक बार वह बूढ़ा चोर बीमार पड़ गया | खाट में पड़े पड़े भी उसे चैन नहीं,एकदम उदास | बेटे ने पूछा - "पिताजी आपको क्या दुःख है ? जो आप इतने उदास है |"
बूढ़े ने कहा - " बेटे मैं तो अब मृत्यु के करीब हूँ | मेरे मन की आकांक्षा थी कि तू बहुत बड़ा चोर बने ,तेरी चोरी की बाते वर्षों तक चले | मरने से पहले एक बार तुझे कोई नामी चोरी करते देख लेता तो मेरा जीवन सफल हो जाता |"
"बस इतनी सी बात | आप दुखी ना होयें | मैं आज ही राजा के पलंग के पायों के नीचे रखी सोने की ईंटे चुराकर आपको दिखाता हूँ |"
बेटे की बात सुनते ही बूढ़े चोर की आँखों में रौशनी चमक गयी | उसे अपनी बीमारी का भान ही नहीं रहा और वह उठ खड़ा हुआ बोला-" बेटा ! मैं भी साथ चलूँगा, तुझे इतनी बड़ी चोरी करते हुए आँखों से देखूंगा |"
दोनों बाप बेटे काला कम्बल ओढ़कर राजमहल की और चल दिए | रात्री के बारह बजे, बारह बजते ही महल की घडी ने चौबीस टंकारे बजाये | उन टंकारों के साथ साथ दीवार पर कीले ठोकता हुआ चोर का बेटा उनके सहारे महल पर जा चढ़ा | पीछे पीछे उसका बाप | दोनों महल में दाखिल हो गए और राजा के शयन कक्ष के पास पहुंचे | देखा मंद रौशनी में राजा पलंग पर सो रहा है पलंग के चारों
पायों के नीचे चार सोने की ईंटे पड़ी है | पलंग के पास एक व्यक्ति बैठा राजा को कहानी सुना रहा है और राजा नींद में ऊंघता हुआ हुंकारे दे रहा है |
चोर ने ऐसी सफाई से तलवार चलाई कि कहानी कहने वाली गर्दन टक से कट गयी और चोर खुद उसकी जगह बैठ नींद में उंघते राजा को कहानी सुनाने लगा -
" एक बार एक राजा के महल में एक चोर चोरी करने घुस आया | राजा सोते हुए कहानी सुन रहा था |"
राजा ने नींद में उंघते हुए हुंकारा दिया - "हूँ |"
चोर - " चोर ने राजा के कहानीकार का सर काट दिया फिर एक पैर काटा और राजा के पलंग के पाए के नीचे दे एक ईंट निकल ली |
राजा नींद में बोला - "फिर ?"
चोर- " फिर चोर ने दूसरा पैर काटा उसे पलंग के दुसरे पाए के नीचे लगाकर दूसरी सोने की ईंट निकाल ली |"
राजा ने फिर हुंकारा देते हुए कहा- " हूँ फिर ?"
चोर- " फिर चोर ने कहानीकार का एक हाथ काटा और पलंग के तीसरे पाए के नीचे दे तीसरी सोने की ईंट निकाल ली |"
राजा - "हूँ फिर ?"
चोर - "फिर चोर ने उसका दूसरा हाथ काटा पलंग के पाए के नीचे दे चौथी सोने की ईंट भी निकाल ली |"
राजा - फिर ?"
चोर - "फिर क्या राजा ! चारों सोने की ईंटे निकाल ली और ये गया चोर | जो करना है वो कर लेना |"
ये सुनते ही राजा एकदम से नींद से उठ खड़ा हुआ और चोर के पीछे भागा | चोर तो खिड़की से बाहर निकल चूका था पर उसका बाप जैसे निकलने लगा राजा ने पीछे से उसकी टाँगे पकड़ ली | अब राजा तो बूढ़े के पैर खेंचे और बेटा उसके हाथ | इसी खेंचतान में बूढ़ा अपने बेटे से बोला -" खेंचतान मत कर मारा जायेगा | मैंने तुझे बड़ी चोरी करते हुए देख लिया है अब मेरा जीवन सफल हो चूका है सो तूं मेरा सिर काटकर लेजा ताकि हम पकड़ में ना आये |"
चोर ने यही किया अपने बाप का सिर काट ले गया | धड़ राजा के पास रह गयी | राजा को बड़ा गुस्सा आया कि मेरे पलंग के पायों के नीचे दबी सोने की ईंटे चोर निकाल ले गया तो फिर जनता की तो हो गयी सुरक्षा |
दुसरे दिन बेटे ने तो चौराहे पर पोस्टर लगा दिया -" नगर में खापरियो चोर आ चूका है और जैसी आज करी वैसी कल भी करेगा |"
राजा ने अपने प्रधान व सामंतो से सलाह की - " कि चोर की धड़ का दाहसंस्कार कर देना चाहिए और श्मशान पर पहरा बिठा देना चाहिए क्योंकि अपने आपको बहादुर समझने वाला चोर इस बूढ़े चोर के सिर का दाहसंस्कार करने अवश्य आएगा |"
नगर कोतवाल ने धड़ का दाहसंस्कार कर श्मशान पर पहरा बिठा दिया | चोर ने फकीर का भेष बनाया, बहुत सा आटा लगाकर उसका उसमे बाप का सिर दबा एक मोटी बाटी बनायीं और श्मशान की और चल दिया,श्मशान में पहुँच बाटी को श्मशान की आग में सकने के लिए दबा दिया |
पहरे वालों ने टोका तो बोला - " मैं तो एक मस्त फकीर हूँ यहाँ अपनी बाटी सकने रुक गया,श्मशान की आग पर भी रोक है क्या ?"
पहरे वालों ने सोचा फकीर है,रोटी बाटी सेक लेगा तो अपना चला जायेगा,सकने दो |
आग में सिर दबाने के थोड़ी देर में सिर का भी दाहसंस्कार हो गया | तब फकीर बना चोर पहरेदारों के पास गया बोला -" आप मेरी बाटी का ध्यान रखना मैं नमक मिर्च लेकर आता हूँ |"
एसा कह चोर तो अपने घर आ गया | पहरे वालों ने देखा न तो फकीर आया न खपरिया चोर आया तो उन्होंने श्मशान की आग को जाकर देखा उन्हें बाटी के स्थान पर चोर का सिर जलता हुआ दिखाई दिया |
सुबह राजा को खबर पहुंची कि चोर ने तो पहरेदारों को बेवकूफ बना सिर का भी दाहसंस्कार कर दिया सो राजा ने कोतवाल को बुला डांटते हुए कहा कि- "जो सिर का दाहसंस्कार करने आ सकता है तो तीसरे दिन उसकी अस्थियाँ चुनने भी जरुर आएगा सो इस बार तुम खुद श्मशान पर पहरा देना और उसे पकड़ लेना |"
चोर तो खुद दिन में महल में ही रहता था ,राजा की बात सुनने के बाद उसने भी निश्चय कर लिया कि अपने बाप की अस्थियाँ चुनने वह जरुर जायेगा |
रात का अँधेरा होते ही चोर ने स्त्री वेश धारण कर एक आटे का लोथड़ा बना,उसे कपडे में लपेट गोद में ले जैसे बच्चे को लेते है ,साथ में लड्डुओं से भरी थाली ले की श्मशान की और चल पड़ा | पहरे पर तैनात खुद कोतवाल ने उसे रोका -
"तूं कौन है ? इस वक्त श्मशान में क्या करने जा रही है ?"
औरत ने हाथ जोड़कर बोला- " माई बाप ! बड़ी मुस्किल से भैरव देवता की मेहरबानी से मेरी गोद भरी है | इससे पहले मेरे चार बच्चे चलते रहे अब इसे नहीं खोना चाहती,श्मशान में भैरव को खुश करने का एक टोटका करना है | श्मशान की राख से सात कंकर इसके सिर पर फेरने है बस |"
एसा कह औरत ने लड्डुओं से भरी थाली पहरे वालों की और करदी | सभी पहरे वाले लड्डू खाने ले लग गए तब तक स्त्री वेश में चोर ने अपने बाप की अस्थियाँ चुन ली | आटे के लोथड़े को श्मशान में रख औरत कोतवाल के पास पहुंची -
" माई बाप ! छोरे को अभी वहीँ सुलाया है मैं पूरी श्मशान भूमि की परिक्रमा कर अभी आई |" कह चोर ने तो सीधा अपने घर का रास्ता पकड़ा |
उधर जब औरत बहुत देर बाद भी नहीं लौटी तो पहरे वालों ने श्मशान में जाकर देखा,बच्चे की जगह आटे का बनाया लोथड़ा पड़ा था | कोतवाल समझ गया वो औरत के वेश में खापरिया चोर ही था | पर अब क्या हो चोर ने तो कोतवाल की नाक ही काट दी |
सुबह राजा को खबर पहुंची | राजा बहुत गुस्सा हुआ | कोतवाल तो बेकार है इसे नौकरी से निकाल दो का हुक्म हो गया | और राजा ने अब अपने ख़ास सरदारों को बुला खापरिया चोर को पकड़ने के अभियान पर लगा दिया |
साँझ पड़ते ही राजा के सभी खास सामंत सरदार हाथों में नंगी तलवारें ले " खबरदार ,ख़बरदार करते हुए नगर की गलियों में चोर को पकड़ने हेतु पहरे पर निकले | चोर ने डाकोत (ज्योतिषी) का वेश बनाया हाथ में पोथी पत्रे लिए और पहरे वाले सरदारों के घर पहुंचा,औरते अपनी गृहदशा पूछने लगी तो ज्योतिषी बने चोर अपनी पोथी पलते हुए,कुछ सोचते हुए,गणना करने का नाटक करते हुए बताया कि - " आज आप लोगों के घर पर अनिष्ट होने वाला है ,एक डाकी(प्रेत)आकर उपद्रव करेगा |"
औरतों ने उसे रोकने का उपाय पूछा |
फिर पोथी देखने का नाटक करते हुए ज्योतिषी ने बाताया कि -" अपने घरों पर पत्थर जमा करलो,हाथों में डंडे रखना और सब चोकस होकर जागते रहना | अपने घरों को अन्दर से अच्छी तरह से बंद रखना और छतों पर चढ़ कर चौकसी करना | जैसे ही आधी रात को राख से लिपटे नंग,धडंग डाकी आये तो छत से पत्थरों की वर्षा कर देना, पत्थरों की मार पड़ेगी तो डाकी अपने आप वापस भाग जायेंगे |"
सरदारों की औरतों को इस तरह समझा कर चोर वापस आया और एक ठेले पर चूल्हा रख उस पर कड़ाही चढ़ा चौराहे पर आकर बैठ बड़े निकालने लगा | पहरे वाले सरदारों ने आकर धमकाया -
"इस वक्त बड़े निकालने का हुक्म नहीं है ,भाग यहाँ से वरना तेरे ये सारे बड़े हम फैंक देंगे |"
चोर हाथ जोड़ते हुए बोला -" बापजी ! फेंकिये मत, एक बार मेरे बनाये बड़े चखिए तो सही,कितने स्वाद है |" और कहते कहते चोर ने दोने भर कर सभी सरदारों के आगे कर दिए | सरदारों ने जैसे बड़े चखे तो वे इतने स्वादिष्ट थे कि बार बार मांग कर खूब छक कर खा गए |
बड़े खाते ही सरदारों को तो नशा होने लगा और वे नशे में बेहोश होने लगे | चोर ने बड़े में भांग मिला दी थी | जैसे ही वे बेहोश हुए चोर ने एक एक कर सबके कपडे उतार लिए और उनके शरीर पर राख मलदी | और खुद अपने घर जाकर सो गया |
काफी रात गए जब सरदारों की बेहोशी टूटी और होश आया और अपनी हालत देखि तो अपने घरों की और भागने लगे |
आगे औरते डाकियों से मुकाबले को सजी हुई बैठे थी,शरीर पर राख मले अपने मर्दों को घर की तरफ आते देख औरतों ने सोचा डाकी आ गए,ज्योतिषी ने सही बताया था | और वे पत्थर वर्षा कर उन पर टूट पड़ी किसी को घर में नहीं घुसने दिया | सुबह का उजाला होते ही सरदारों को लोगों ने पहचाना अरे ये तो जोरावरसिंह जी ,अरे ये पर्वतसिंह जी, ये दलपतसिंह जी,ये फालना सिंह जी आदि आदि |
सब को अपने अपने घरों में घुसे | शर्म से किसी ने राजा को मुंह नहीं दिखाया | कौनसे मुंह से राजमहल जाकर राजा से मुजरा करे ?
पुरे नगर में खापरिये चोर की होशियारी की चर्चा होने लगी | खापरिये चोर ने तो नगर चौक पर फिर पोस्टर लगा दिया कि -" जैसी कल करी वैसी ही आज करूँगा |"
चोर की चतुराई : राजस्थानी कहानी, भाग- 2
भाग १ से आगे
जब खापरिया चोर ने राजा के सभी खास सरदारों की भी अच्छी तरह से आरती उतरवा दी तो राजा का और गुस्सा आया राजा ने अपने मंत्रियों से कहा -
" ये चोर तो रोज चोट पर चोट किये जा रहा है अब इसे पकड़ना बहुत जरुरी हो गया है | वैसे कांटा निकालने के लिए काटें की ही जरुरत पड़ती है इसलिए इसे पकड़ने के जिम्मेदारी चोरों को ही देते है,चोर चोर की हर हरकत से वाकिफ होता है इसलिए राज्य के सभी चोरों को इकठ्ठा कर इसके पीछे लगा देते है वे इसे पकड़ने में जरुर कामयाब होंगे |"
नगर के सभी नामी चोरों को राजभवन में बुलाया गया और उन्हें खापरिया चोर को पकड़ने की जिम्मेदारी दी गयी | चोरों ने राजा से अर्ज किया -
" महाराज ! हमें एक ऊंट व एक नौलखा हार दिलवाया जाय |"
राजा ने उनकी मांग मंजूर करदी |
शाम होते ही ऊंट के गले में नौलखा हार पहनाकर चोरों ने ऊंट को नगर में खुला विचरण करने के लिए छोड़ दिया और उससे कुछ दुरी बनाकर खुद चलने लगे इस घोषणा के साथ कि-
" असल चोर है तो इस ऊंट के गले से नौलखा हार निकालकर ले जाय |"
खापरिया तो वहीँ था उसे तो सब पता होता था कि अब ये क्या करने वाले है सो उसने दिन में ही अपने घर में ऊंट को काट कर दफ़नाने जितना एक गड्ढ़ा पहले ही खोद लिया | जैसे ही रात हुई वह चोरों द्वारा छोड़े ऊंट के पीछे हो लिया | आगे बाजार में एक जगह एक बाजीगर अपना खेल दिखा रहा था | खापरिये ने बाजीगर से कहा-
" कोई एसा चमत्कारी तमाशा दिखा कि देखने वाले भ्रमित हो जाये तो तुझे रूपये पचास दूंगा |"
बाजीगर तमाशा दिखाते हुए बोला -" मर्द को औरत बना दूँ ,चींटी को हाथी बना दूँ ,कोई कहे तो खापरिये चोर को पकडवा दूँ........................|"
बाजीगर की ऐसी चमत्कारिक बाते सुन चोरों का दल भी खड़ा होकर सुनने लगा तब तक खापरिये चोर ऊंट को अगवा कर अपने घर ले गया,पहले बाहर आकर ऊंट के पैरों के निशान मिटा दिए और बाद में घर जाकर ऊंट के गले से नौलखा हार निकाल,ऊंट को काट उस गड्ढे में दफना दिया |
सुबह चोरों का दल अपना मुंह लटकाकर राजा के आगे हाजिर हुआ, उनके साथ न तो ऊंट था,न नौलखा हार और खापरिये का तो पता ही नहीं |
खापरिये चोर ने तो नगर चौराहे पर फिर पोस्टर लगा दिया -" जैसी कल करी वैसी ही आज करूँगा |"
राजा ने चोरों के दल को भगा दिया और अपने प्रधान को बुलाकर कहा - " प्रधान जी ! आज रात आप पहरे पर जाएँ और चोर को पकड़ कर हाजिर करे नहीं तो आपकी प्रधानी गयी समझो |"
रात को प्रधान जी खुद घोड़े पर बैठ गस्त पर निकले | आगे बढे तो देखा एक बुढ़िया इतनी रात गए हाथ चक्की से रोते हुए दलिया दल रही है | प्रधान जी ने बुढ़िया से पूछा -
" इतनी रात गए तूं ये दलिया किसके लिए दल रही है और रो क्यों रही है ?"
बुढ़िया बोली- "अन्नदाता ! गरीब लाचार बुढ़िया हूँ | खापरिया चोर के घोड़े के लिए दाना दल रही हूँ | क्या करूँ हुजुर रोज वह चोर मुझे अपने घोड़े के लिए दाना दलने हेतु दे जाता है,मेहनत के पुरे पैसे भी नहीं देता ,मना करती हूँ तो धमकाता है |"
खापरिये चोर का नाम सुनते ही प्रधान जी चेहरा चमक उठा सोचा आज आसानी से खापरिये को पकड़ लूँगा | लगता है मेरे पहले जितने लोग पहरे पर निकले सब नालायक थे | और प्रधान जी ने बुढिया से कहा -
" माई ! मैं इस राज का प्रधान हूँ | खापरिये ने तुझे भी तंग कर रखा है आज मुझे यहाँ कहीं छिपा कर बैठा दे और खापरिया के आते ही इशारा कर देना मैं उसे पकड़ लूँगा |"
बुढ़िया बोली- " छिपने से वह आपके पकड़ में नहीं आने वाला,कहीं भाग गया तो | इसलिए आप एक काम करो मेरे कपड़े पहन यहाँ खुद दलिया दलने बैठ जावो,जब खापरिया दाना लेने आये तो झटके से उसे पकड़ लेना |"
प्रधान जी के बुढ़िया की बात जच गयी वे बुढ़िया के कपड़े पहन खुद दाना दलने बैठ गए | उधर खापरिया प्रधान जी कपड़े व घोड़ा लेकर छू मंतर हो गया |और प्रधान जी को हाथ की चक्की पिसते-पिसते सुबह हो गयी,न तो खापरिया आया न बुढ़िया नजर आई,न प्रधान जी के कपड़े व घोड़ा दिखाई दिया | तब प्रधान जी को आभास हुआ कि खापरिया उन्हें भी बेवकूफ बना गया | बेचारे प्रधान जी तो पानी-पानी हो गए,प्रधानी गयी सो अलग |
प्रधान जी की असफलता की बात सुन राजा को बड़ा क्रोध आया कहने लगा - " सब हरामखोर है,सबको फ्री का खाने की आदत पड़ गयी इतने लोगों को पहरे पर लगाया कोई भी उस चोर को पकड़ नहीं पाया ,अब तो मुझे ही कुछ करना होगा |"
और रात पड़ते ही खुद राजा शस्त्रों से लेश हो घोड़े पर चढ़ नगर में पहरे पर निकला | खापरिये तो दिन में महल में ही रहता था सो राजा द्वारा उठाये जाने वाले हर कदम का उसे पता होता था |
शस्त्रों से सज्जित राजा रात्री में पहरा देते हुए तालाब पर धोबी घाट की और गया तो देखा एक धोबी पछाट-पछाट कर कपड़े धो रहा है | राजा ने पास जाकर धोबी से पूछा-
" तू कौन है ? और इतनी रात गए कपड़े क्यों धो रहा है ?"
"हुजुर मस्ताना धोबी हूँ | आपकी रानियों के कपड़े धो रहा हूँ |
" तो आधी रात को क्यों धो रहा है ?" राजा ने पूछा |
हुजुर अन्नदाता ! रानियों की पोशाकों पर हीरे जड़े रहते है दिन में यहाँ भीड़ रहती है कोई एक आध हिरा चुरा ले जाए तो | इसलिए रात को धोता हूँ पर हुजुर इतनी रात गए आप यहाँ अकेले ?"
"खापरिया चोर को पकड़ने |" राजा ने उत्तर दिया |
धोबी बोला - "महाराज ! खापरिया तो रोज यहाँ आता है,मेरे साथ बातें करता है ,हुक्का पीता है | उसे पकड़ना है तो आप एक काम करे , उस पेड़ के पीछे छुप कर बैठ जाए ,खापरिया आते ही मैं उसे बातों में उल्झाऊंगा और आप आकर उसे एकाएक झटके से पकड़ लेना |"
राजा के बात जच गयी और वो एक पेड़ की ओट में छिपकर बैठ गए | अँधेरी रात थी,कुछ देर बाद राजा को किसी के पैरों की आहट सुनाई दी ये आवाज धोबी की और जा रही थी | राजा समझ गया कि हो न हो खापरिया आ गया है सो वह चौकन्ना हो गया |
उधर धोबी ने बोलना शुरू किया -" आ खापरिया आ | आ हुक्का पीते है बैठ |"
राजा ने खापरिया का जबाब भी सुना - " हाँ भाई मस्तान धोबी ! ला हुक्का पीला फिर चलता हूँ ,जैसी कल प्रधान जी में करी वैसी आज राजा के साथ भी करनी है |"
इतना सुनते ही राजा को क्रोध आया और वह तलवार ले सीधा खापरिया की और दौड़ा | राजा के दौड़ते ही धोबी ने एक काली हांडी तालाब में फैंक दी और राजा से बोला -
" महाराज ! पकड़िये खापरिया तो पानी में कूद गया और तैर कर भाग रहा है |"
राजा भी तुरंत पानी में कूद गया उसे आगे आगे तैरती जा रही काली हांडी सिर जैसी लग रही थी | राजा तैरते हुए हांफते हांफते हांडी के पास पहुंचा और हांड़ी पर तलवार का वार किया,तलवार के वार से हांडी के फूटते ही राजा को समझ आ गयी कि खापरिये ने उसके साथ भी चोट कर दी है | राजा पानी से बाहर आया तो धोबी गायब और उसका घोड़ा भी | राजा को तो काटो तो खून नहीं |और राजा मन ही मन बड़ा शर्मिंदा हुआ |
दुसरे दिन राजा दरबार में आकर बैठा और अपने दरबारियों से खापरिये चोर की तारीफ़ करने लगा - " जो भी चोर हो तो एसा ही हो | बेशक वह चोर है पर है बहुत होशियार और बहादुर | ऐसे होशियार व्यक्ति से मैं मिलना चाहता हूँ पर वह पकड़ में तो आएगा नहीं, पर बेशक मुझे कुछ भी करना पड़े मुझे उसे देखना जरुर है | कुछ भी बहादुरी तो दुश्मन की भी सराहनी पड़ती है | और ये चोर तो अपने हुनर में उस्ताद है |"
और राजा ने हुक्म दे दिया -" यदि खापरिया सुन रहा है या यह खबर उस तक पहुँच जाय तो वह हमारे दरबार में हाजिर हों | उसके लिए सभी गुनाह माफ़ किये जाते | यही नहीं एक बार वह आकर मेरे सामने हाजिर हो जाए तो उसे इनाम में दस गांवों की जागीर भी दी जाएगी |"
इतने में ही राजा के नौकरों में से एक राजा के आगे आकार खड़ा हुआ -" अन्नदाता ! लाख गुनाह माफ़ करने का वचन दे तो खापरिये को अभी लाकर आपके सामने हाजिर कर दूँ |"
"वचन दिया |"
"तो ये खापरिया मैं आपके चरणों में खड़ा हूँ हुजुर |"
मैं कैसे मानू कि तुम ही खापरिया हो ?" राजा ने कहा |
"हुजुर ! मेरे साथ राज के आदमी मेरे घर भेज दीजिये,जब सारा सामान आपको नजर करदूं तब मान लेना |"
राजा ने अपने आदमी उसके घर भेजे ,खापरिये ने सोने की चारों इंटे,नौलखा हार सभी लाकर राजा के नजर कर दिया |
राजा ने अपने वचन के मुताबिक उसे माफ़ कर दिया और साथ ही दस गांवों की जागीर भी ये कहते हुए दी कि - " कभी चोरी मत करना अपनी दक्षता का इस्तेमाल सही कामों में करना |

शनिवार, 18 नवंबर 2017

ममता और कर्त्तव्य।

चित्तौड़ के जौहर पर आयुवान सिंह हुडील की कहानी ममता और कर्त्तव्य

विक्रम संवत् 1360 के चैत्र शुक्ला तृतीया की रात्रि का चतुर्थ प्रहर लग चुका था । वायुमण्डल शांत था । अन्धकार शनैः शनैः प्रकाश में रूपान्तरित होने लग गया था । बसन्त के पुष्पों की सौरभ भी इसी समय अधिक तीव्र हो उठी थी । यही समय भक्तजनों के लिए भक्ति और योगियों के लिए योगाभ्यास द्वारा शान्ति प्राप्त करने का था । सांसारिक प्राणी भी वासना की निवृत्ति उपरांत इसी समय शान्ति की शीतल गोद में विश्राम ले रहे थे । चारों ओर शान्ति का ही साम्राज्य था ।

ठीक इसी समय पर चित्तौड़ दुर्ग (Chittorgarh) की छाती पर सैकड़ों चिताएँ प्रदीप्त हो उठी थी । चिर शान्ति की सुखद गोद में सोने के लिए अशान्ति के महाताण्डव का आयोजन किया जा रहा था । और ठीक इसी ब्रह्म मुहूर्त में विश्व की मानवता को स्वधर्म-रक्षा का एक अपूर्व पाठ पढ़ाया जाने वाला था । उस पाठ का आरम्भ धू-धू कर जल रही सैकड़ों चिताओं में प्रवेश (Johar of Chittorgarh) करती हुई हजारों ललनाओं के आत्मोसर्ग के रूप में हो गया था ।
“मैं सूर्य-दर्शन करने के उपरान्त शास्त्रोक्त विधि से चिता में प्रवेश करूँगी। अपने पुत्र गोरा को उसकी वृद्ध माताजी ने अपने पास बुलाते हुए कहा ।
“जो आज्ञा माताजी।’ कह कर गोरा आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए घर से बाहर निकलने लगा ।

‘‘और मैं माताजी का जौहर दर्शन करने के उपरान्त चिता-प्रवेश करूँगी |''

गोरा ने मुड़ कर देखा - पंवारजी माताजी को स्नान कराने के लिए जल का कलश ले जाते हुए कह रही थी । यदि कोई ओर समय होता तो उद्दण्ड गोरा अपनी स्त्री के इस आदेशात्मक व्यवहार को कभी सहन नहीं करता पर वह दिन तो उसकी संसार-लीला का अन्तिम दिन था । कुछ ही घड़ियों पश्चात् उसकी माता और स्त्री को अग्नि-स्नान द्वारा प्राणोत्सर्ग करना था और उसके तत्काल बाद ही गोरा को भी सुल्तान अलाउद्दीन की असंख्य सेना के साथ युद्ध करते हुए ‘धारा तीर्थ में स्नान करना था । इसीलिए असहिष्णु गोरा ने मौन स्वीकृति द्वारा स्त्री के अनुरोध का भी आज पालन कर दिया था । वह एक के स्थान पर दो चिताएँ तैयार कराने में जुट गया ।

थोड़ी देर में दो चिता सजा कर तैयार कर दी गई । उनमें पर्याप्त काष्ठ, घृत, चन्दन, नारियल आदि थे । एक चिता घर के पूर्वी आंगन में और दूसरी घर के उत्तरी अहाते की दीवार से कुछ दूर, वहाँ खड़े हुए नीम के पेड़ को बचाकर तैयार की गई थी । विधिवत् अग्निप्रवेश करवाने के लिए पुरोहितजी भी वहाँ उपस्थित थे ।

गोरा की माँ ने पवित्र जल से स्नान किया, नवीन वस्त्र धारण किए, हाथ में माला ली और वह पूर्वाभिमुख हो, ऊनी वस्त्र पर बैठकर भगवान का नाम जपने लगी । गत पचास वर्षों के इतिहास की घटनायें एक के बाद एक उस वृद्धा के स्मृति-पटल पर आकर अंकित होने लगी । उसे स्मरण हो आया कि पहले पहल जब वह नववधू के रूप में इस घर में आई थी, उसका कितना आदर-सत्कार था । गोरा के पिताजी उसे प्राणों से अधिक प्यार करते थे । वे युद्धाभियान के समय द्वार पर उसी का शकुन लेकर जाते थे और प्रत्येक युद्ध से विजयी होकर लौटते थे । विवाह के दस वर्ष उपरान्त अनेकों व्रत और उपवास करने के उपरान्त उसे गोरा के रूप में पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ था। । उस दिन पति-पत्नी को कितनी प्रसन्नता हुई थी, कितना आनन्द और उत्सव मनाया गया था। । गोरा के पिताजी ने उस आनन्द के उपलक्ष में एक ही रात में शत्रुओं के दो दुर्ग विजय कर लिए थे ।

अभी गोरा छः महीने का ही हुआ था कि सिंह के आखेट में उनका प्राणान्त हो गया था । वह उसी समय सती होना चाहती थी पर शिशु के छोटे होने के कारण वृद्ध जनों ने उसे आज्ञा नहीं दी । फिर गोरा बड़ा होने लगा। । वह कितना बलिष्ठ, उद्दण्ड, साहसी और चपल था उसने केवल बारह वर्ष की आयु में ही एक ही हाथ के तलवार के वार से सिंह को मार दिया था। और सोलह वर्ष की अवस्था में कुछ साथियों सहित बड़ी यवन सेना को लूट लाया था । इसके उपरान्त वृद्धा ने अपने मन को बलपूर्वक खींच कर भगवान में लगा दिया ।

कुछ क्षण पश्चात् उसे फिर स्मरण आया कि आज से बीस वर्ष पहले उसके घर में नववधू आई थी| वह कितनी सुशीला, आज्ञाकारिणी और कार्य दक्ष है| आज भी जब वह मुझे स्नान करा रही थी तो किस प्रकार उसकी आँखें सजल उठी थी| गोरा के उद्दण्ड और क्रोधी स्वभाव के कारण उसे कभी भी इस घर में पति-सम्मान नहीं मिला| फिर भी वह उसकी सेवा में कितनी तन्मय और सावधान रहती है| वृद्धा ने फिर अपने मन को एक झटका सा देकर सांसारिक चिन्तन से हटा लिया और उसे भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में लगा दिया । वह ओम नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र को गुनगुनाने लगी ।

कुछ क्षण पश्चात् फिर उसे स्मरण आया कि राव रतनसिंह, महारानी पद्मिनी और रनिवास की अन्य ललनायें उसका कितना अधिक सम्मान करती हैं महारानी पद्मिनी की लावण्यमयी सुकुमार देह, उसके मधुर व्यवहार और चित्तौड़ दुर्ग पर आई इस आपति का उसे ध्यान हो आया । उसने आँखें उठा कर प्राची की ओर देखा और नेत्रों से दो जल की बूंदें गिर कर उनके आसन में विलीन हो गई |

इतने में उसका पंचवर्षीय पौत्र बीजल नीद से उठ कर दौड़ा-दौड़ा आया और सदैव की भाँति उसकी गोद में बैठ गया ।
“आज दूसरे घरों में आग क्यों जल रही है दादीसा ? बीजल ने वृद्धा के मुँह पर अपने दोनों हाथ फेरते हुए पूछा । वृद्धा ने उसे हृदय से लगा लिया उसके धैर्य का बाँध टूट पड़ा, नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित हुई और उसने बीजल के सुकुमार सिर को भिगो दिया । बीजल अपनी दादी के इस विचित्र व्यवहार को बिल्कुल नहीं समझा और वह मुँह उतार कर फिर बैठ गया ।

वृद्धा ने मन ही मन कहा - ‘‘इसे कैसे बताऊँ कि अभी कुछ ही देर में इस घर में भी आग जलने वाली है जिसमें मैं, तुम्हारी माता और तुम सभी –“ वृद्धा की हिचकियाँ बन्ध गई । उसने अपनी बहू को आवाज दी - ‘‘बीजल को ले जा ?’ वह मेरे मन को अन्तिम समय में फिर सांसारिक माया में फँसा रहा है।’’

पंवारजी दही के लिए हठ करती हुई अपनी तीन वर्षीया पुत्री मीनल को गोद में लेकर आई और बीजल को हाथ पकड़ कर घर के भीतर ले गई ।
“कितना सुन्दर और प्यारा बच्चा है । ठीक गोरा पर ही गया है । बची भी कितनी प्यारी है । जब वह तुतली बोली में मुझे दादीथा कह कर पुकारती है तो कितनी भली लगती है। कुछ ही क्षणों के बाद ये भी अग्निदेव के समर्पित हो जायेंगे । हाय ! मेरे गोरा का वंश ही विच्छेद हो जाएगा | एक गोरा का क्या आज न मालूम कितनों के वंश-प्रदीप बुझ रहे हैं । यह सोचते हुए वृद्धा की आँखों में फिर अश्रुधारा प्रकट हो गई । उसने बड़ी कठिनाई से अपने को सम्हाला; सुषुप्त आत्मबल का आह्वान किया और फिर नेत्र बन्द करके ईश्वर के ध्यान में निमग्न हो गई ।

गोरा अब तक यंत्रवत् सब कार्य करने में तल्लीन था । उसने अब तक न निकट भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं पर ही कुछ सोचा था और न अपने मन को ही किसी विकार से उद्वेलित किया था । पर जब जौहर-व्रत सम्बन्धी सम्पूर्ण व्यवस्था समाप्त हो गई तब उसने भाव रहित मुद्रा में प्राची की ओर देखा । उषाकाल प्रारम्भ होने ही वाला था । प्राची में उदित अरूणाई के साथ ही साथ उसे अपनी माता का स्मरण हो आया । उसे स्मरण हो आया कि एक घड़ी पश्चात् सूर्योदय होते ही उसकी पूजनीया वृद्धा माँ अग्निप्रवेश करेगी और वह पास खड़ा-खड़ा उस दृश्य को देखेगा । वह कठोर हृदय था, कूर स्वभाव का था, साहसी और वीर था पर उच्चकोटि का मातृभक्त भी था । अब तक कभी भी उसने माता की अवज्ञा नहीं की थी । माता भी उसे बहुत अधिक प्यार करती थी और वह भी माता का बहुत अधिक सम्मान करता था । पिता का प्यार उसे प्राप्त नहीं हुआ था, पर माता की स्नेह सिंचित शीतल गोद में लिपटकर ही वह इतना साहसी और वीर बना था । माता का अमृत तुल्य पय-पान कर ही उसने इतना बल-वीर्य प्राप्त किया था; उसकी ओजमयी वाणी से प्रभावित होकर उसने अब तक शत्रुओं का मान मर्दन किया था । उसके स्वास्थ्य, कल्याण और उसकी दीर्घायु के लिए उसकी माता ने न मालूम कितने ही व्रत-उपवास किये थे, कितने देवी-देवताओं से प्रार्थना की थी; यह सब गोरा को ज्ञात था । माता के कोटि-कोटि उपकारों से उसका रोम-रोम उपकृत और कृतज्ञ हो रहा था|

तीर्थों में गंगा सबसे पवित्र है, पर गोरा की दृष्टि में उसकी माता की गोद से बढ़ कर और कोई तीर्थ पवित्र नहीं था । उसके लिए मातृ-सेवा ही सब तीर्थ-स्नान के फल से कहीं अधिक फलदायी थी । माता गोरा के लिए आदि शक्ति योगमाया का ही दूसरा रूप है । वही उसके लिए विपत्ति के समय रक्षा का विधान करती और सुख के समय उसे खिलातीपिलाती और अपनी पवित्र गोद में लिपटाती । वही परम पवित्र माता कुछ ही क्षण पश्चात् चिता में प्रवेश कर भस्म हो जाएगी और भस्म इसलिए हो जायेगी कि गोरा जैसा निर्वीर्य पुत्र उसे बचा नहीं सकता । उसे अपने पुरुषार्थ पर लज्जा आई, विवशता पर क्रोध आया ।
उसने मन ही मन अपने आपको धिक्कारा - “मैं कितना असमर्थ हूँ कि आज अपनी प्राणप्रिय माताजी को भी नहीं बचा सकता ।

फिर उसे ध्यान आया -‘‘मेरी जैसी हजारों माताएँ आज चिता-प्रवेश कर रही हैं और मैं निर्लज्ज की भाँति खड़ा-खड़ा उन्हें देख रहा हूँ, अपने हाथों चिता में आग लगा रहा हूँ, धिक्कार है मेरे पुरूषार्थ को, धिक्कार है मेरे बाहुबल को और धिक्कार है मेरे क्षत्रियत्व को। गोरा उत्तेजित हो उठा और शत्रुओं पर टूट पड़ने के लिए कमर में टंगी हुई तलवार लेने के लिए झपट पड़ा । सहसा उसे ध्यान आया कि अभी तो जौहर-व्रत पूरा करवाना है। वह रुका और पूर्वी तिबारी में बैठी हुई माँ के चरणों में अन्तिम प्रणाम करने के लिए चल पड़ा ।

गोरा ने अत्यन्त ही भक्तिपूर्वक ईश्वर ध्यान में निमग्न माता को चरण छूकर प्रणाम किया । माता ने पुत्र को देखा और पुत्र ने माता को देखा । दोनों ओर से स्नेह-सरितायें उमड़ पड़ी । गोरा अबोध शिशु की भाँति माता की गोद में लेट गया । उसका पत्थर तुल्य कठोर हृदय भी माता की शीतल गोद का सान्निद्य प्राप्त कर हिमवत् द्रवित हो चला । माता ने अपना सर्वसुखकारी स्नेहमय हाथ गोरा के माथे पर फेरा और कहने लगी ।

“गोरा तुम्हारा परम सौभाग्य है । स्वतंत्रता, स्वाभिमान, कुल-मर्यादा और सतीत्व रूपी स्वधर्म पर प्राण न्यौछावर करने का सुअवसर किसी भाग्यवान क्षत्रिय को ही प्राप्त होता है। तुमन आज उस दुर्लभ अवसर को अनायास ही प्राप्त कर लिया है । ऐसे ही अवसरों पर प्राणोत्सर्ग करने के लिए राजपूत माताएँ पुत्रों को जन्म देती है । वास्तव में मेरा गर्भाधान करना और तुम जैसे पुत्र को जन्म देना आज सार्थक हुआ है । बेटा, उठ ! यह समय शोक करने का नहीं है ।’ कहते हुए माता ने बड़े ही स्नेह से गोरा के आँसू अपने हाथों से पोंछे ।

मातृ-प्रेम में विह्वल गोरा पर इस उपदेश का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा । उसकी आँखों का बाँध टूट गया । वह अबोध शिशु की भाँति माता से लिपट गया । रण में शत्रुओं के लिए महाकाल रूपी गोरा आज माता की गोद में दूध-मुँहा शिशु बन गया था । कौन कह सकता था कि क्रूरता, कठोरता, रूद्रता और निडरता की साक्षात् मूर्ति, माँ की गोद में अबोध शिशु की भाँति सिसकियाँ भरने वाला यही गोरा था ।

माता ने अपने दोनों हाथों के सहारे से गोरा को बैठाया । वह फिर बोली - ‘‘बेटा! तुझे अभी बहुत काम करना है । मुझे जौहर करवाना है, फिर बहू को सौभाग्यवती बनाना है और बच्चों को भी ..... | यह कहते-कहते वात्सल्य का बाँध भी उमड़ पड़ा, पर उसने तत्काल ही अपने को सम्हाल लिया । वह आगे बोल उठी – ‘‘तेरा इस समय इस प्रकार शोकातुर होना उचित नहीं । तेरी यह दशा देख कर मेरा और बहू का मन भी शोकातुर हो जाता है । पवित्र जौहर-व्रत के समय स्त्रियों को विकारशून्म मन से प्रसन्नचित्त हो चिता में प्रवेश करना चाहिए तभी जौहर-व्रत का पूर्ण फल मिलता है, नहीं तो वह आत्महत्यातुल्य निकृष्ट कर्म हो जाता है।

इतने में पुरोहित ने आकर सूचना दी - माताजी सूर्योदय होने वाला है; चिता-प्रवेश का यही शुभ समय है । माता तुरन्त वहाँ से उठ खड़ी हुई और चिता के पास आकर खड़ी हो गई । गोरा फूट-फूट कर रोने लगा । पुरोहित ने सांत्वना बंधाते हुए कहा -

“गोराजी किसके लिए अज्ञानी पुरूष की भाँति शोक करते हो । क्योंकि -
’’न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||’’

अब गोरा ने अपने को सम्भाला । उसने अपनी स्त्री और बालकों सहित माँ की परिक्रमा की । माता ने उनका माथा सूघा और आशीर्वाद दिया । “शीघ्रता करिए। पुरोहित ने चिता पर गंगाजल छिड़कते हुए कहा ।

वृद्धा ने तीन बार चिता की परिक्रमा की और फिर प्राची में उदित होते हुए सूर्य को नमस्कार किया और प्रसन्न मुद्रा में वह चिता पर चढ़कर बैठ गई । उसने अपने मुँह में गंगाजल, तुलसी-पत्र और थोड़ा सा स्वर्ण रखा और ब्राह्मणों को भूमिदान करने का संकल्प किया ।

गोरा ने कहा - ‘‘अन्तिम प्रार्थना है माँ ! स्वर्ग में मेरे लिए अपनी सुखद गोद खाली रखना और यदि संसार में जन्म लेने का अवसर आए तो जन्म-जन्म में तू मेरी माता और मैं तेरा पुत्र होऊँ ।’

माता ने हाथ की उंगली ऊपर कर ईश्वर की ओर संकेत किया और “मेरे दूध की लज्जा रखना बेटा ।’’ कह कर आँखें बन्द कर ध्यानमग्न हो गई । पुरोहित ने वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ अग्नि प्रज्जवलित की । गोरा ने देखा स्वर्णिम लपटों से गुम्फित उसकी माता कितनी दैदीप्यमान लग रही थी । देवताओं के यज्ञ-कुण्ड में से प्रकटित जग-जननी दुर्गा के तुल्य उसने ज्वाला-परिवेष्ठित अपनी माता के मातृ स्वरूप को मन ही मन नमस्कार किया और आत्मा की अमरता का प्रतिपादन करता हुआ गुनगुना उठा -

’ ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’
पुरोहित ने चिता में शेष घृत को छोड़ते हुए श्लोक के दूसरे चरण को पूरा किया‘‘न चैनं कलेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः ।।'

गोरा ने कर्त्तव्य के एक अध्याय को समाप्त किया और वह दूसरे की तैयारी में जुट पड़ा । अलसाए हुए नेत्रों सहित वह उत्तरी चिता के जाकर खड़ा हो गया । पंवारजी ने चंवरी के समय के अपने वस्त्र निकाले, उन्हें पहना, माँग में सिन्दूर भरा, आँखों में काजल लगाया और वह नवदुल्हन सी सजधज कर घर के बाहर आ गई । उसने बीजल का हाथ पकड़ते हुए मीनल को गोरा की गोद में देते हुए मुस्करा कर कहा -
“लो सम्हालो अपनी धरोहर, मैं तो चली।“ गोरा ने बीजल की अंगुली पकड़ ली और मीनल को अपनी गोद में बैठा लिया । उसने देखा पंवारजी आज नव-दुलहन से भी अधिक शोभायमान हो रही थी । वह प्रसन्न मुद्रा में थी और उसके चेहरे पर विषाद की एक भी रेखा नहीं थी । गोरा ने मन ही मन सोचा - ‘‘मैंने इस देवी की सदैव अवहेलना की है। इसका अपमान किया है । अन्तिम समय में थोड़ा पश्चाताप तो कर लूं ॥“
उसने कहा - ‘‘पंवारजी मैंनें तुम्हे बहुत दुःख दिया है । क्या अन्तिम समय में मेरे अपराधों को नहीं भूलोगी ।'
“यह क्या कहते हैं नाथ आप । मैं तो आपके चरणों की रज हूँ और सदैव आपके चरणों की रज ही रहना चाहती हूँ । परसों गौरी-पूजन (गणगौर) के समय भी मैंनें भगवती से यही प्रार्थना की थी कि वह जन्म-जन्म में आपके चरणों की दासी होने का सौभाग्य प्रदान करें |'' “पंवारजी मैंनें आज अनुभव किया कि तुम स्त्री नहीं साक्षात् देवी हो।

“सो तो हूँ ही । परम सौभाग्यवती देवी हूँ इसलिए पति की कृपा की छाया में स्वर्ग जा रही हूँ ।’ यह कह कर पंवार जी तनिक सी मुस्कराई और फिर बोल उठी -

“इस घर में आपके पीछे होकर आई पर स्वर्ग में आगे जा रही हूँ । क्यों नाथ ! मैं बड़ी हुई या आप ?’ परिस्थितियों की इस वास्तविक कठोरता के समय किये गये इस व्यंग से गोरा में किंचित् आत्महीनता की भावना उदय हुई उसके मानस प्रदेश पर भावों का द्वन्द्व मच गया और उसकी वाणी कुण्ठित हो गई ।

इसके उपरान्त पंवारजी आगे बढी । उसने बीजल और मीनल को चूमा, उनके माथों पर प्यार का हाथ फेरा । स्वामी की परिक्रमा की, उसके पैर छुए और वह बोली -

“नाथ ! स्वर्ग में प्रतीक्षा करती रहूँगी, शीघ्र पधार कर इस दासी को दर्शन देना । स्वर्ग में मैं आपके रण के हाथों को देखेंगी । देखेंगी आप किस भाँति मेरे चूड़े का सम्मान बढ़ाते हैं ।’’

गोरा ने सोचा - “ये अबला कहलाने वाली नारियाँ पुरूषों से कितनी अधिक साहसी, धैर्यवान और ज्ञानी होती हैं। इस समय के साहस और वीरत्व के समक्ष युद्धभूमि में प्रदर्शित साहस और वीरत्व उसे अत्यन्त ही फीके जान पड़े | उसने पहली बार अनुभव किया कि नारी पुरूषों से कहीं अधिक श्रेष्ठ होती हैं । अब उसके साहस, धैर्य और वीरता का गर्व गल चुका था । वह बोल उठा -

पंवारजी तुमने अन्तिम समय में मुझे परास्त कर दिया। मैं भगवान सूर्य की साक्षी देकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम्हारे चूड़े के सम्मान को तनिक भी ठेस नहीं पहुँचने ढूँगा।" बोली पंवारजी ने सब शास्त्रीय विधियों को पूर्ण किया और फिर पति से हाथ जोड कर बोली-
“नाथ मैं चिता में स्वयं अग्नि प्रज्जवलित कर दूँगी। आप मोह और ममता की फॉस इन बच्चों को लेकर थोड़े समय के लिए दूर पधार जाइये।”
गोरा मन्त्र मुग्ध सा -
‘‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’
गुनगुनाता हुआ दोनों बालकों को गोद में उठाकर घर के भीतर चला गया ।
“दादीसा जल क्यों गए पिताजी ? बीजल ने उदास मुद्रा में पूछा ।
“दादीसा भगवान के पास चली गई है बेटा।”
‘‘हम लोग क्यों नही चलते ।’’
“अभी थोड़ी देर बाद चलेंगे बेटा।'
गोरा ने अपने पुत्र के भोले मुँह को देखा । वह उसकी जिज्ञासा को किन शब्दों में शान्त करे, यह सोच नहीं सका ।
इतने में “भाभू जाऊँ , भाभू जाऊँ “ कह कर मीनल मचल उठी और उसने गोरा की गोद से कूद कर माता के पास जाने के लिए अपने नन्हें से दोनों पैरों को नीचे लटका दिया|

गोरा ने मचलती हुई मीनल के चेहरे को देखा । उसे उसका निर्दोष, भोला और करूण मुख अत्यन्त ही भला जान पड़ा ।

वह आंगन में रखी चारपाई पर बैठ गया और उसने पुत्र और पुत्री को दोनों हाथों से वक्षस्थल से चिपटा लिया । वात्सल्य की सरिता उमड़ चली । वह सोचने लगा - “किस प्रकार अपने हृदय के टुकड़ों को अपने ही हाथों से अग्नि में फेंकूं ? हाय ! मैं कितना अभागा हूँ, लोग सन्तान प्राप्ति के लिये नाना प्रकार के जप-तप करते और कष्ट उठाते हैं पर मैं आप, अपने सुमन से सुन्दर सुकुमार और निर्दोष बच्चों के स्वयं प्राण ले रहा हूँ। मैं सन्तानहत्यारा नहीं बनूंगा, चाहे म्लेच्छ इन्हें उठाकर ले जायें पर अपने हाथों इनका वध नहीं करूँगा ।’’

इतने में “भाभू जाऊँ , भाभू जाऊँ “ कह कर मीनल मचल उठी ।
गोरा उन बालकों को गोदी में उठा कर छत पर ले गया । उसने देखा - ‘‘धॉयधाँय कर सैकड़ों चिताएँ जल रही थी । उनमें न मालूम कितने इस प्रकार के निर्दोष बालकों को स्वाहा किया गया था । उसने देखा मुख्य जौहर-कुण्ड से निकल रही भयंकर अग्नि की लपटों ने दिन के प्रकाश को भी तीव्र और भयंकर बना दिया था ।

“हा, महाकाल ! मुझसे यह जघन्य कृत्य मत करा। हा, देव ! इतनी कठोर परीक्षा तो हरिशचन्द्र की भी नहीं ली थी ।' कहता हुआ गोरा बालकों का मुँह देख कर रो पड़ा । पिता का हृदय था, द्रवित हो बह चला ।

उसने फिर पूर्व की ओर दृष्टिपात किया । उसकी दृष्टि सुल्तान के शिविर पर गई । उसका रोम-रोम क्रोध से तमक उठा । प्रतिहिंसा की भयंकर ज्वाला प्रज्जवलित हो उठी । द्रवित हृदय भी उससे कुछ कठोर हुआ । उसने सोचा -
“मैं क्यों शोक कर रहा हूँ । मुझे तो अपने सौभाग्य पर गर्व करना चाहिए ।“ उसे अपनी माता और पत्नी का चिता-प्रवेश और उपदेश स्मरण हो आया । ‘
‘मैं अपने इन नौनिहालों को सतीत्व और स्वतंत्रता रूपी स्वधर्म की बलि पर चढ़ा रहा हूँ । वास्तव में मैं भाग्यवान हूँ ।’ वह तमक कर उठ बैठा और बच्चों को गोदी में उठा कर कहने लगा-
“चलो तुम्हें अपनी भाभू के पास पहुँचा आऊँ ',
’’नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’

गुनगुनाता हुआ वह पंवारजी की चिता के पास बालकों को लेकर चला आया । चिता इस समय प्रचण्डावस्था में धधक रही थी । गोरा ने अपने हृदय को कठोर किया और भगवान का मन में ध्यान किया । फिर अपना दाहिना पैर कुछ आगे करके वह दोनों बालकों को दोनों हाथों से पकड़ कर थोड़ा सा झुला कर चिता में फेंकने वाला था कि पुत्र और पुत्री चिल्ला कर उसके हाथ से लिपट गए । उन्होंने अपने नन्हें-नन्हें सुकोमल हाथों से दृढ़तापूर्वक उसके अंगरखे की बाँहों को पकड़ लिया और कातरता और करूणापूर्ण दृष्टि से टुकर-टुकर पिता के मुँह की ओर देखने लग गए । ऐसा लगा मानों अबोध बालकों को भी पिता का भीषण मन्तव्य ज्ञात हो गया था । उस समय इन बालकों की आँखों में बैठी हुई साकार करूणा को देखकर क्रूर काल का भी हृदय फट जाता । गोरा उनकी आँखों की प्रार्थना स्वीकार कर कुछ कदम चिता से पीछे हट गया । चिता की भयंकर गर्मी और भयावनी सूरत को देखकर मीनल अत्यन्त ही भयभीत हो गई थी; उसने भाभू जाऊँ, भाभू जाऊँ की रट भय के मारे बन्द कर दी । बीजल इस नाटक को थोड़ा बहुत समझ चुका था । उसने पिता से कहा –
“पिताजी ! मैं भी ललाई में तलँगा । मुझे आग में क्यों फेंकते हो?

ममता की फिर विजय हुई । गोरा ने उन दोनों बालकों को हृदय से लगा लिया । उनके सिरों को चूमा और सोचा, – “पीठ पर बाँध कर दोनों को रणभूमि में ही क्यों नहीं ले चलूं ?“ थोड़ी देर में विचार आया, - “ऐसा करने से अन्य योद्धा मेरी इस दुर्बलता और कायरता के लिए क्या सोचेंगे ?“ ये दो ही नहीं हजारों बालक आज भस्मीभूत हो। रहे हैं ।

वह फिर साहस बटोर कर उठा - अपने ही शरीर के दो अंशो को अपने ही हाथों आग में फेंकने के लिए । उसने हृदय कठोर किया, भगवान से बालकों के मंगल के लिए प्रार्थना की; अपने इस राक्षसी कृत्य के लिए क्षमा माँगी और मन ही मन गुनगुना उठा -
“हा क्षात्र-धर्म, तू कितना कूर और कठोर है ।“ बीजल नहीं पिताजी-नहीं पिताजी' चिल्लाता हुआ उसके अंगरखे की छोर पकड़ कर चिपट रहा था, मीनल ने कॉपते हुए अपने दोनों नन्हें हाथ पिता के गले में डाल रखे थे । दोनों बालकों की करूणा और आशाभरी दृष्टि पिता के मुंह पर लगी हुई थी ।
गोरा ने ऑखें बन्द की और कर्त्तव्य के तीसरे अध्याय को भी समाप्त किया । अग्नि ने अपनी जिह्वा से लपेट कर दोनों बालकों को अपने उदर में रख लिया । ममता पर कर्त्तव्य की विजय हुई ।
गोरा पागल की भाँति लपक कर घर के भीतर आया । अब घर उसे प्रेतपुरी सा भयंकर जान पड़ा । वह उसे छोड़ कर बाहर भागना चाहता था कि सुनाई दिया -
“कसूमा का निमन्त्रण है, शीघ्र केसरिया करके चले आइए।’’

अब गोरा कर्त्तव्य का चौथा अध्याय पूर्ण करने जा रहा था । उसे न सुख था और न दु:ख, न शोक था और न प्रसन्नता । वह पूर्ण स्थितप्रज्ञ था । मार्ग में धू-धू करती हुई सैकड़ों चिताएँ जल रही थी । भुने हुए मानव माँस से दुर्गन्ध उठी और धुआँ ने उसे तनिक भी विचलित और प्रभावित नहीं किया । वह न इधर देखता था और न उधर, बस बढ़ता ही जा रहा था ।

(आयुवान सिंह साहब की कलम से)
ममता और कर्त्तव्य।