मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

सोरठा- सुमिर सदा सतनाम

सोरठा- सुमिर सदा सतनाम

*कर कीरत रा काम   सतमारग चलणो सजग*
*सुमिर सदा सतनाम   अवर न दूजौ आसरो*

*निस्चै रहसी नाम  नांणां पण रहणां नहीं*
*सुमिर सदा सतनाम.  दिनड़ा जावै दौड़िया*

*तज दे तंत तमाम.  अंत समै आणौ अवस*
*सुमिर सदा सतनाम. पासी मुगती जीव पण*

*डीलां ऊपर डांम.   सबद बांण लाग्या सबल*
*सुमिर सदा सतनाम    सुरगलोक में सरवरा*

*ठाला ठीकर ठाम.  पिंजर तन पीळा पडै*
*सुमिर सदा सतनाम. अजर अमर इक आतमा*

*निरभै निरख निजाम. निवण निरंजन नाथ ने*
*सदा सुमिर सतनाम  सत साहिब सुभ साधना*

*रतनसिंह चाँपावत रणसीगाँव कृत*

रविवार, 22 अक्तूबर 2017

राजकुंवर- शुभ्रक story

कुतुबुद्दीन ऐबक और क़ुतुबमीनार---
किसी भी देश पर शासन करना है तो उस देश के लोगों का ऐसा ब्रेनवाश कर दो कि वो अपने देश, अपनी संसकृति और अपने पूर्वजों पर गर्व करना छोड़ दें. इस्लामी हमलावरों और उनके बाद अंग्रेजों ने भी भारत में यही किया. हम अपने पूर्वजों पर गर्व करना भूलकर उन अत्याचारियों को महान समझने लगे जिन्होंने भारत पर बे हिसाब जुल्म किये थे।

अगर आप दिल्ली घुमने गए है तो आपने कभी विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को भी अवश्य देखा होगा. जिसके बारे में बताया जाता है कि उसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनबाया था. हम कभी जानने की कोशिश भी नहीं करते हैं कि कुतुबुद्दीन कौन था, उसने कितने बर्ष दिल्ली पर शासन किया, उसने कब विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को बनवाया या विष्णू स्तम्भ (कुतूबमीनार) से पहले वो और क्या क्या बनवा चुका था ?

कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गौरी का खरीदा हुआ गुलाम था. मोहम्मद गौरी भारत पर कई हमले कर चुका था मगर हर बार उसे हारकर वापस जाना पडा था. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की जासूसी और कुतुबुद्दीन की रणनीति के कारण मोहम्मद गौरी, तराइन की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हराने में कामयाबी रहा और अजमेर / दिल्ली पर उसका कब्जा हो गया।
अजमेर पर कब्जा होने के बाद मोहम्मद गौरी ने चिश्ती से इनाम मांगने को कहा. तब चिश्ती ने अपनी जासूसी का इनाम मांगते हुए, एक भव्य मंदिर की तरफ इशारा करके गौरी से कहा कि तीन दिन में इस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना कर दो. तब कुतुबुद्दीन ने कहा आप तीन दिन कह रहे हैं मैं यह काम ढाई दिन में कर के आपको दूंगा।

कुतुबुद्दीन ने ढाई दिन में उस मंदिर को तोड़कर मस्जिद में बदल दिया. आज भी यह जगह "अढाई दिन का झोपड़ा" के नाम से जानी जाती है. जीत के बाद मोहम्मद गौरी, पश्चिमी भारत की जिम्मेदारी "कुतुबुद्दीन" को और पूर्वी भारत की जिम्मेदारी अपने दुसरे सेनापति "बख्तियार खिलजी" (जिसने नालंदा को जलाया था) को सौंप कर वापस चला गय था।

कुतुबुद्दीन कुल चार साल (१२०६ से १२१० तक) दिल्ली का शासक रहा. इन चार साल में वो अपने राज्य का विस्तार, इस्लाम के प्रचार और बुतपरस्ती का खात्मा करने में लगा रहा. हांसी, कन्नौज, बदायूं, मेरठ, अलीगढ़, कालिंजर, महोबा, आदि को उसने जीता. अजमेर के विद्रोह को दबाने के साथ राजस्थान के भी कई इलाकों में उसने काफी आतंक मचाया।

जिसे क़ुतुबमीनार कहते हैं वो महाराजा वीर विक्रमादित्य की वेदशाला थी. जहा बैठकर खगोलशास्त्री वराहमिहर ने ग्रहों, नक्षत्रों, तारों का अध्ययन कर, भारतीय कैलेण्डर "विक्रम संवत" का आविष्कार किया था. यहाँ पर २७ छोटे छोटे भवन (मंदिर) थे जो २७ नक्षत्रों के प्रतीक थे और मध्य में विष्णू स्तम्भ था, जिसको ध्रुव स्तम्भ भी कहा जाता था।

दिल्ली पर कब्जा करने के बाद उसने उन २७ मंदिरों को तोड दिया।विशाल विष्णु स्तम्भ को तोड़ने का तरीका समझ न आने पर उसने उसको तोड़ने के बजाय अपना नाम दे दिया। तब से उसे क़ुतुबमीनार कहा जाने लगा. कालान्तर में यह यह झूठ प्रचारित किया गया कि क़ुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ने बनबाया था. जबकि वो एक विध्वंशक था न कि कोई निर्माता।
अब बात करते हैं कुतुबुद्दीन की मौत की।इतिहास की किताबो में लिखा है कि उसकी मौत पोलो खेलते समय घोड़े से गिरने पर से हुई. ये अफगान / तुर्क लोग "पोलो" नहीं खेलते थे, पोलो खेल अंग्रेजों ने शुरू किया. अफगान / तुर्क लोग बुजकशी खेलते हैं जिसमे एक बकरे को मारकर उसे लेकर घोड़े पर भागते है, जो उसे लेकर मंजिल तक पहुंचता है, वो जीतता है।
कुतबुद्दीन ने अजमेर के विद्रोह को कुचलने के बाद राजस्थान के अनेकों इलाकों में कहर बरपाया था. उसका सबसे कडा विरोध उदयपुर के राजा ने किया, परन्तु कुतुबद्दीन उसको हराने में कामयाब रहा. उसने धोखे से राजकुंवर कर्णसिंह को बंदी बनाकर और उनको जान से मारने की धमकी देकर, राजकुंवर और उनके घोड़े शुभ्रक को पकड कर लाहौर ले आया।

एक दिन राजकुंवर ने कैद से भागने की कोशिश की, लेकिन पकड़ा गया. इस पर क्रोधित होकर कुतुबुद्दीन ने उसका सर काटने का हुकुम दिया. दरिंदगी दिखाने के लिए उसने कहा कि बुजकशी खेला जाएगा लेकिन इसमें बकरे की जगह राजकुंवर का कटा हुआ सर इस्तेमाल होगा. कुतुबुद्दीन ने इस काम के लिए, अपने लिए घोड़ा भी राजकुंवर का "शुभ्रक" चुना।

कुतुबुद्दीन "शुभ्रक" घोडे पर सवार होकर अपनी टोली के साथ जन्नत बाग में पहुंचा. राजकुंवर को भी जंजीरों में बांधकर वहां लाया गया. राजकुंवर का सर काटने के लिए जैसे ही उनकी जंजीरों को खोला गया, शुभ्रक घोडे ने उछलकर कुतुबुद्दीन को अपनी पीठ से नीचे गिरा दिया और अपने पैरों से उसकी छाती पर कई बार किये, जिससे कुतुबुद्दीन वहीं पर मर गया।

इससे पहले कि सिपाही कुछ समझ पाते राजकुवर शुभ्रक घोडे पर सवार होकर वहां से निकल गए. कुतुबुदीन के सैनिको ने उनका पीछा किया मगर वो उनको पकड न सके. शुभ्रक कई दिन और कई रात दौड़ता रहा और अपने स्वामी को लेकर उदयपुर के महल के सामने आ कर रुका. वहां पहुंचकर जब राजकुंवर ने उतर कर पुचकारा तो वो मूर्ति की तरह शांत खडा रहा।

वो मर चुका था, सर पर हाथ फेरते ही उसका निष्प्राण शरीर लुढ़क गया. कुतुबुद्दीन की मौत और शुभ्रक की स्वामिभक्ति की इस घटना के बारे में हमारे स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता है लेकिन इस घटना के बारे में फारसी के प्राचीन लेखकों ने काफी लिखा है. *धन्य है भारत की भूमि जहाँ इंसान तो क्या जानवर भी अपनी स्वामी भक्ति के लिए प्राण दांव पर लगा देते हैं।

युवा  ताकत को प्रणाम

बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

सबरै घरै दीवाल़ी होसी!!


सबरै घरै दीवाल़ी होसी!!

गिरधरदान रतनू दासैड़ी
मन रो तिमिर हरैला दीपक,
उण दिन ही उजियाल़ी होसी!
मिनखपणो होसी जद मंडित ,
देख देश दीवाल़ी होसी!!
जात -पांत सूं ऊपर उठनै,
पीड़ पाड़ोसी समझेला!
धरम धड़ै में बांटणियां वै,
घोषित उण  दिन जाल़ी होसी!!
कर्मठता री कदर जिकै दिन,
ठालोड़ा अंतस में करवा!
मैणत री पूजा में भाई ,
हाथ सज्योड़ी थाल़ी होसी!!
सतवादी हरचंद री  फोटू,
घर घर रो सिंणगार बणैली!
भ्रष्टाचार कोम रै सारू
तिण दिन भद्दी गाल़ी होसी!!
संविधान गीता री जागा,
जद भान हुवैलो हर जन नै!
मंदर मंदर धजा तिरंगो,
जबरो ठौड़ धजाल़ी होसी!!
न्याय कचेड़ी नहीं बिकैला,
साच रहेला आंच बिनां!
पंच रूप परमेसर तिण दिन,
रीतां खास रुखाल़ी होसी!!
वर्ग भेद री आंधी थमसी,
मिनख  मिनख नै मानेलो!
दंभ रो थंभ पड़ेलो तिण दिन,
हाथां दोऊं ताल़ी होसी!!
काल़ी रात अमावस वाल़ी,
सत री राह सूझावेली!
दीपक जोत पांगरै प्रीति,
सबरे घरै दीवाल़ी होसी!!

गिरधरदान रतनू दासोड़ी

मंगलवार, 17 अक्तूबर 2017

सुजस सादूळ सोढां रौ

सो धरती सोढाण
"सुजस सादूळ सोढां रौ"

राणै वीसै रा हुवा,
बिहु सुतन्न बुधवाण।
भुजबळ सादूला भला,
सो धरती सोढाण।।1।।

बड़भागी नर भाखरै,
सिध मन राखी सान।
लूणकरण नै उजाळियौ,
सो धरती सोढाण।।2।।

धरा धज्ज 'सादूळकी',
सादुळ हरां सुथान।
पौह राखण पोहरिया,
सो धरती सोढाण।।3।।

जलमियौ कुसलौ जठै,
सुभ ढूको सैनाण।
कोट थरपियौ ठाकरां,
सो धरती सोढाण।।4।।

पाट धरा चेलार पर,
थिर सादूळां थान।
कीरत बारह कोटड़ी,
सो धरती सोढाण।।5।

जग्गो 'सीयौ 'लक्खौ'
जबर,'बाखर' तणौ वखाण।
तवां भड़ 'सादूळ'तणा,
सो धरती सोढाण।।6।।

'गोपो''देवौ'गाढवर,
'खियौ'गुणां री खाण।
धज सपूत सातूं धड़ै,
सो धरती सोढाण।।7।।

मोटे चित रण मांडियो,
करण कुसल कल्याण।
गौ वाहरू शिवो गिणां,
सो धरती सोढाण।।8।

भोम सुतन सोनो भलो,
जबरी राखण जाण।
तवां भड़ चेलार तणौ,
सो धरती सोढाण।।9।।

जूझो चेलार जलमियौ,
माहव राखण माण।
सादूळां दाता सिरै,
सो धरती सोढाण।।10।।

आंबूं उदर ऊपनियो,
इदकी राखण आण।
एकल जलम उजालियौ,
सो धरती सोढाण।।11।

ठेळ रचाई ठाकरां,
दाता परखण दान।
उण ठौड़ ऊंठ आपियो,
सो धरती सोढाण।।12।

धरा चेलार दीपियौ,
रंग सादूळ राण।
वहता ओठा बगसिया,
सो धरती सोढाण।।13

मोटे चित मासींग रै,
मागण राख्यो माण।
ईढ नह हुवै आपरी,
सो धरती सोढाण।।14।।

जूझै सोढे जेहड़ो,
दीठो नह दिलवान।
चित नह उतरै जाचकां,
सो धरती सोढाण।।15।

कही कीरत कवेसरां,
अखियातां उनमान।
साख चहुंदिसां संचरी
सो धरती सोढाण।।16

चवां चेलार चेहनो
जनक 'जूझार' जाण।
कुळां उजाळण कीरती
सो धरती सोढाण।17।।

पारस आंबौ पाटवी
गुणी पूत गूमान ।
चावा नर चेलार रा
सो धरती सोढाण।18।।

सोढ भलो खानेस सुत
तपियो आबू ताण।
गिणां भोज मुनि गूंगिये,
सो धरती सोढाण।।19

नगौ 'लाल'घर ऊपनौ
धेनां राखण ध्यान।
चौपट खेल्यौ चाव सूं
सो धरती सोढाण।।20

दाव दियो न तरवट नै
बाजी ली बुधवाण।
तड़ लिखवायौ 'तरवटां'
सो धरती सोढाण।।21।

केसव सुत 'मनरो' कहूं,
भलो भाखरां भाण।
ध्रम साटे जीवण दियो
सो धरती सोढाण।।22

माने मीठू जेळ में,
भलो भज्यो भगवान।
प्रभू नै आणो पड़ियो,
सो धरती सोढाण।।23।।

भैर हठू बांधव भणू,
महियर राखण माण।
महिमा माणी धाट में
सो धरती सोढाण।।24।।

हुवौ गेमरौ गाढवर
हठू घरै हुलसाण।
बांटी सोबतड़ी वळै
सो धरती सोढाण।।25।।

इंद्र उणो जिस ऊपनौ
हठू तणौ हुलराण।
भागी थोड़ो भळकियौ
सो धरती सोढाण।।26

सेहरत लिवी सरजमी
पुरखा करम प्रमाण।
ठावा चावा पींगटी
सो धरती सोढाण।।27।।

सोढो सादूळौ सिरै
जगमालां घण जाण।
पाबूबैरे पाकियौ
सो धरती सोढाण।।28।।

हुवौ गाढवर गरड़िये
खेतौ सोढ सुजाण।
अमरेसा सुत ऊजळौ
सो धरती सोढाण।।29।।

राणौ रमियौ उण धरां
जस जगमालां जाण।
पूत पृथ्वीराज तण,
सो धरती सोढाण।।30।।

मांदोड़ै मघौ जलम,
इदकी राखण आण।
सौरम सादूलां घणी
सो धरती सोढाण।।31।।

भोम सुतन दोनूं भला
जलम काटियै जाण।
वींझौ ज्वारो जबरौ
9सो धरती सोढाण।32।।

भागी राणौ भाखरां
जींझीयर घण जाण
जीवराज पितु पूणियै,
सो धरती सोढाण।।33।।

रहण सहण रणजीत री
जींझीयर तण जाण।
भलो सोढ भवसिंघ रौ
सो धरती सोढाण।।34।।

बिटड़ां भड़ हंजौ हुवौ
सादूळां कुळ सान।
फूल तळै खीमौ तवां
सो धरती सोढाण।।35।।

सोढ सुखौ सरदार सुत
सादूळां सुभियाण।
कूप खुदायौ नीर कज
सो धरती सोढाण।।36

इण कुळ नोंघौ ऊपनौ
अणदै राखण आण।
पैठ बढाई पींगटी
सो धरती सोढाण।।37।।

विसनो सुत रणजीत रो,
अरनरै तणी आण।
ठौर ठसक 'ठोभाळियै'
सो धरती सोढाण।।38

अमर बनौ घर ऊपनौ
जबर सुपातर जाण।
ख्यात खेजड़ाळै खरी
सो धरती सोढाण।।39।।

ठावा गोपा मिठड़ियै
जालमै तणी जाण।
ऊजळ राखी आबरू
सो धरती सोढाण।।40।।

जोधो सादूळो जबर
तैजो तणो वखाण।
महिमा माणी मिठड़िये
सो धरती सोढाण।41

दाखां दानौ मिठड़िये,
गोपां तणो गुमान।
हरनाथै हुलरावियौ
सो धरती सोढाण।।42।।

सूरौ सादूळां सही
देवै हंदो डाण।
रंग मिठड़ियै राखियौ
सो धरती सोढाण।।43।।

भाडाळी ओनौ भयौ
सज्जण नै सुभियाण।
जस जगमालां जोड़ियौ
सो धरती सोढाण।44

वींझौ डाहाली हुवौ
सुत रणमल्ल सुजाण।
सोभा सादूळां सही
सो धरती सोढाण।।45।।

चरकाळी आंबौ चवां
वींझल सुत गुणवाण।
भूरासर लीधी भलप,
सो धरती सोढाण।।46।

गिणां माहसिँघ गूँगियै
पिता जिती पहचाण
रावत रौ पोतो भले,
सो धरती सोढाण।।47।।

मांदोड़ै सेरौ मुणां
रंग रूपाळौ जाण।
सादूळां लीधो सुजस
सो धरती सोढाण।।48।।

तवां सोढ पांचू तळै,
राखण छती पिछाण।
रतनहरा रांगड़ हुवा
सो धरती सोढाण।।49।।

सोढ भलो सुरतेस रौ
नर नेतौ गुणवाण।
अंजसियौ आसापुरै
सो धरती सोढाण।।50।।

डायौ सोढो डूंगरौ
धीराणी धिनवान।
रौनक राखी रोझड़ी
सो धरती सोढाण।।51।।

चावौ नेतो चंदनौ
सुरतै रौ सुभियाण।
नांव कमायौ नींबलै
सो धरती सोढाण।।52।।

भड़ नामी भीभाणियां
गुणी लीधो गुमान।
चाहड़ियाई चित बणी
सो धरती सोढाण।।53।।

सिद्ध मनां सादूळहर
सदा सवाई शान।
सिरै सपूताई रही
सो धरती सोढाण।।54।।

@संग्राम सिंह सोढा
सचियापुरा बज्जू

पत्नी री पीड़ मोबाईल

" पत्नी री पीड़ मोबाईल "
--------------------
ऐ सखी म्हारो सायबो
     सुणे नी मन की बात।
सोच सोच बिलखूँ घणी,
      निबळो पड़ियो गात।

जद स्यूं घर में आवियो,
      रिपु मोबाइल भूत।
बतळायाँ बोले नहीं,
      रैवे जियां अवधूत।

दिन आखो चिपक्यो रैवे,
      मोबाइल रे संग।
जक नी लेवै रात दिन,
      आछ्यो हुयो अपंग।

बता सखी यो वाट्सप,
     कुण करियो निरमाण।
छाती छोल र धर दी ,
    इन म्हारी सौतन जाण।

आँख्यां ताणे उंघतो,
    आधी आधी रात।
झंझारकै ही जागज्या,
    झट ले ठूंठो हाथ।

म्हा स्यूं तो बतळे नहीं,
    फेसबूक पे गल्ल।
मुळक मुळक गल्लां करै,
    कर मोबायल ,
टुकड़ो तिल खावै नहीं,
    लाईक री घण भूख।

चढ़ चश्मो आंधा हुआ,
    डोबा लाग्या दूख।
रैण दिवस पड़ियो रैवे,
     करै न कोई काम!

मोबाईल हाथां रेवै,
     भोर दुपहरी शाम।
हाथ मगज़ दुबळा हुया,
     नैण हुया अणसूझ।

सखी तमीणे सायबे ने,
     रस्तो कोई तो बूझ।
पिंड छूटे इण पाप स्यूं,
     करै' जै कोई काम।

करै राजरी नौकरी,
     सिंझ्या भजले राम।
सखी राह कोई बता,
     किम छोडाउं लार।

मोबाइल री सौत ने,
    केहि बिध काढुं बार।
हाल रैयो जै कैई दिनाँ,
    तो उठसी म्हारौ चित्त।

क मोबाइल रैइसी,
    क बंदी रहसी इत्त।।

Meera ke bhajan

राणा
म्हासूं गोविन्द तज्यो न जाय।।

बालापन मैं जिण संग ब्याही लीना फेरा खाय
वो ही म्हारो सांचो प्रीतम साँची कहूँ समझाय।।1।।

नाम रटूं दिन रात निरंतर आठ पहर यदुराय
साँस साँस में श्याम बस्यो है किण बिध दयूं बिसराय।।2।।

जहर पियालो आप भेजियो अमृत दियो बनाय।
सर्प पिटारो हाथे सोप्यो हार गले पहणाय।।3।।

म्हे तो मोहन हाथ बिकानी हाथ न खुद रे हाय
मीरा के प्रभु गिरधर नागर दूजो न कोई सुहाय।।4।।

जय श्री कृष्णा

रविवार, 15 अक्तूबर 2017

वीर वीरमदे

"वीर वीरमदे"
गढ़ जालोरी घणो जोर को,कान्हड़ रो दरबार।
उण रो जायो पूत वीरमदे शूराँ रो सिरदार।।

शूराँ रो सिरताज है कान्हड़,वीरम वीर प्रताप।
पिंडयाँ धुजे बैरयाँ री,अर मौत वरणीयो आप।।

कुल रो बढ़ियो मान घणो,उज्जळो गढ़ जालोर।
वीरम दे री ख्याति रा अबे,चर्चा च्यारों ओर।।

उण दिनां र माहि लगे,ख़िलजी रो दरबार।
सुन शहजादी ख्यात वीरम री,मान लियो भरतार।।

बात मान ले म्हारी फिरोजा, ख़िलजी रह्यो समझाय।
वीर घणा है जग र माँहि,वीरम न वरण्यो जाय।।

मर्दानी और एक मर्द,म्हारो वीर वीरम।
दासी उण रा चरणा री,काढू थारो भरम।।

थकियो हार्यो ख़िलजी बोल्यो,सुण वीरम म्हारी बात।
शहजादी रो वरण थे करल्यो,देश्यूँ गढ़ सौगात।।

सुण बादशाह गाँठ बंद ले,एक म्हारी तूँ बात।
धर्म  राखबा खातर वीरम,छाती सह्वे आघात।।

विधर्मी ना वीर वीरम,छोड़ देऊँ दरबार।
धर्म न राखण खातर,जनम्यो ओ सिरदार।।

धर्म रूखाळा वीरम देव जी कर दीन्यो इनकार।
जाण फिरोजा आ पहुंची फेर कान्हड़ र दरबार।।

जा फिरोजा ओठी चलीज्या,तूँ दिल्ली दरबार।
धर्म न राखण गढ़ जालोरी,टुकड़ा होवे हजार।।

बातां सुणके वीरमदेव री,ख़िलजी होग्यो लाल।
सर काट क तेरो वीरम दे, करस्यूं तने हलाल।।

ख़िलजी रा लश्कर फेरूँ,करयो कूच जालोर।
वीरम देव र साथ र माँही,रण हुयो घणघोर।।

वीर वीरम दे घणो ही लड्यो,काट्या सौ मुग्लाय।
लड़ता लड़ता धर्म रूखाळो,वीरगति गयो पाय।।

जी जीवंता धर्म राखियो,राख्यो गढ़ जालोर।
धर्म री ख्याति इणसूं फैली देखो चारो ओर।।

(कुँवर आयुवान सिंह जी हुडील द्वारा रचित हठीलो राजस्थान की अन्तरकथा "वीरमदे" का काव्य रुपांतरण

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

आखर रा उमराव आई जी

मायड़ भाषा राजस्थानी अर मरूधरा री मरजादा रै अँतस री ऊंडी पीड़ रा चावा अर ठावा चितेरा अर मिनखपणै ने  ओपती ओळखांण  देय 'र आपरै पुरसारथ री सीळी सौरम सूं सुवासित कर साहित रै गिगनार में उगंता अरक रै उनमान उजास थरपणिया आदरजोग आई दान सिंह जी भाटी  आईजी सा ने आपरै अवतरण दिवस रै मौकै मौकळी बधाई अर रावळै चरणां में सबद सुमन ....

अँगेजण री घणैमान अरदास

आखर रा उमराव आई जी
हिवडे रा हरसाव आई जी

ठाकरबा री ठावी ठौड़ां
देखी बालपणै री दौड़ां
टाबर टोळी ओळै दोळै
घर गुवाड़ी मिसरी घोळै
आंगण रा ऊमाव आईजी
हिवडे रा हरसाव आईजी
आखर रा उमराव आईजी

मिनखपणौ सीखी मरजादा
सांच बोलणा रहणा सादा
रीत प्रीत रा जबर रुखाळा
अँतस आतम दीप उजाळ.
चित्तडै चढियौ चाव आईजी हिवड़े रा हरसाव आाईजी
आखर रा उमराव आईजी

सबद ब्रह्म री सदा सेवना
खरी बात री करी खेवना
कूड़ कपट तो कदै न कहणौ
निरमल मन अर निरभै रहणो
दिलड़ै रा दरियाव आईजी
हिवड़ै रा हरसाव आईजी
आखर रा उमराव आईजी

माँडै रोज मुळकती माटी
भव री पीड़ उघाड़ै भाटी
जियाजूण रो साम्प्रत लेखो
मीच आँखियां साम्ही देखो
दुनिया रा दरसाव आईजी
हिवड़ै रा हरसाव आईजी
आखर रा उमराव आईजी

अनमी अटल अवधूत आप हैं
मरुभौम री असल छाप है
धोरा री धरती रो धोरी
सहज उगैरे कवित सजौरी 
छिन छिन शीतल छांव अाईजी
हिवड़े रा हरसाव आई जी
आखर रा उमराव आई जी

@©©©©©®

*रतनसिंह चाँपावत रणसीगाँव कृत*

बुधवार, 11 अक्तूबर 2017

मरणो तो इक मोत,

मरणो तो इक मोत,मार नित नाही मरणो!
करणो सुफरत काम,चाल चलन राह चलणो!!१
डग नाँह पल डिगांय,बात आँह उमर बहणी!
लेवे जग मे लार,कहानी मुँख गढ कहणी!!२
दुर्लभ तन पर दाग,धोया नही कदे धुपे!
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शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

राव शेखाजी

राव शेखाजी
राजस्थान में शूर-वीरों की कभी कोई कमी नहीं रही।
यही कारण था कि राजस्थान के इतिहास के जनक जेम्स कर्नल टॉड को यह कहना पड़ा कि इस प्रदेश का शायद ही कोई ग्राम हो जहाँ एक भी वीर नहीं हुआ हो। बात सही भी लगती है।

इस अध्याय में जिन वीर शेखा का वृतांत ले रहे हैं वो किसी बड़े राज्य के स्वामी नहीं बल्कि उनका एक बहुत ही छोटे ठिकाने में जन्म हुआ था।
आज भले ही वह क्षेत्र एक बड़े नाम 'शेखावाटी' से जाना जाता है।
जिसमें राजस्थान को दो जिले सीकर व झुंझनु आते हैं।
यह शेखावाटी इन्ही वीर शेखा के नाम पर है।

शेखा का सम्बन्ध यूं तो जयपुर राजघराने के कछवाह वंश से है लेकिन उनके पिता राव मोकल के पास मात्र 24 गाँवों की जागीर थी।
राव मोकल के घर आंगन में शेखा का जन्म सम्वत् 1490 में हुआ था।
इनके जन्म की भी अपनी एक रोचक कहानी है जो इस प्रकार है।

राव मोकल बहुत ही धार्मिक वृति के पुरुष थे।
मोकल के वृद्धावस्था तक कोई सन्तान नहीं हुई फिर भी संतोषी प्रवृति के होने के कारण किसी से कोई शिकायत नहीं थी।
बस, साधु-संतों की सेवा-सुश्रा में लगे रहते थे।
मोकल को एक दिन किसी महात्मा ने उन्हें वृंदावन जाने की सलाह दी और उसी के अनुसार महाराव मोकल वृंदावन गये।
वहां उन्हें गऊ सेवा में एक विशिष्ट आनन्द की अनुभूति हुई।
यहीं उन्हें किसी ने गोपीनाथजी की भक्ति करने के लिए कहा। मोकल अपनी वृद्धावस्था में गऊ सेवा और भगवान गोपीनाथजी की सेवा-आराधना में ऐसे लीन हुए कि उन्हें दिन कहाँ बीतता, पता ही नहीं लगता।

मोकल जी की
निरबान रानी की कोख से बच्चे ने जन्म लिया। 
शेखा निश्चित ही प्रतापी पुरुष थे। इन्होंने अपने पिता की 24 गाँवों की छोटी सी जागीर को 360 गाँवों की एक महत्वपूर्ण जागीर का रूप दे दिया।
सच तो यह है कि शेखा किसी जागीर के मालिक नहीं थे बल्कि वे एक स्वतंत्र रियासत के मुखिया हो गये थे।

दूरदृष्टा-राव शेखा ने अपने जीवन काल में करीब बावन युद्ध लड़े। इनमें कुछ तो अपने ही भाइयों आम्बेर के कछवाहों के साथ भी लड़े।
शेखा की दिन दूनी-रात चौगूनी सफलता को नहीं पचा पाए, जिसके कारण उनके न चाहते हुए भी उन्हें संघर्ष को मजबूर होना पड़ा था।
सौभाग्य से उन्हें हर युद्ध में सफलता प्राप्त हुई।
एक बार आम्बेर नरेश ने नाराज होकर बरवाड़ा पर आक्रमण कर दिया तो राव शेखा ने इस क्षेत्र में रहने वाले पन्नी पठानों को अपनी तरफ करके उस आक्रमण को भी विफल कर दिया।

इस सफलता के पीछे राव शेखा की दूरदृष्टि थी।
शेखा ने समझ लिया था कि क्षेत्र में पन्नी पठानों का बाहुल्य है और उनको बिना विश्वास में लिए शासन करना सम्भव नहीं है, तो उन्होंने पन्त्री पठानों के 12 कबीलों को 12 ग्राम जागीर में दिये ताकि हमेशा शान्ति बन रहे। इस निमित्त कुछ नियम बनाये ताकि हिन्दुमुस्लिम दोनों ही में कभी कोई विरोध पैदा ना हो।
राव शेखा ने अपने पीले झंडे के नीचे चौ-तरफा नीली पट्टी लगवाई क्योंकि पठानों का झंडा नीले रंग का था।
इसी तरह से दोनों धर्मों में पवित्र माने जाने वाले पशुपक्षियों के वध एवं उनके मांस-भक्षण पर सहमति बनाली, जैसे पठान गाय-बेल का मांस नहीं खायेंगे और हिन्दु सुअर का मांस भोजन में नहीं लेंगे।

मर्यादा पुरुष-राजपूती संस्कृति के अनुरूप शेखा एक मर्यादाशील पुरुष थे तथा अन्य से भी मर्यादोचित व्यवहार की अपेक्षा रखते थे, फिर वे चाहे कोई भी हो।
जीवन पर्यन्त उन्होंने मर्यादाओं की रक्षा की।
इतिहास गवाह है कि एक स्त्री की मान मर्यादा के पालनार्थ उन्होंने अपने ही ससुराल झूथरी के गौड़ों से झगड़ा मोल लिया जिसके परिणामस्वरूप घाटवे का युद्ध हुआ और उसमें उन्हें अपने प्राणों की आहुति भी देनी पड़ी थी।

घटना कुछ इस प्रकार से थी। झूथरी ठिकाने का राव मोलराज गौड़ अहंकारी स्वभाव का था। उसने अपने गाँव के पास से जाने वाले रास्ते पर एक तालाब खुदवाना आरम्भ किया और यह नियम बनाया कि रास्ते से गुजरने वाले प्रत्येक राहगीर को एक तगारी मिट्टी खोदकर बाहर की ओर डालनी होगी।

एक कछवाह राजपूत अपनी पत्नी के साथ गुजर रहा था। पत्नी रथ में थी, वह स्वयं घोड़े पर था, साथ में एक आदमी और था। इन सबको भी मिट्टी डालने को विवश किया। कछवाह राजपूत व उसके साथ के आदमी ने तो मिट्टी डालदी परन्तु वहाँ के लोग स्त्री से भी मिट्टी डलवाने के लिए जबरदस्ती रथ से उतारने
लगे तो पति ने समझाया-बुझाया पर जब नहीं माने और बदसूलकी पर उतर आये तो उसने गौड़ों के एक आदमी को तलवार से काट दिया।
इस पर वहाँ एकत्रित गौड़ों ने भी स्त्री के पति को मौत के घाट उतार दिया।
पत्नी ने अपने आदमी का अन्तिम संस्कार करने के बाद वहाँ से एक मुट्ठी मिट्टी अपनी साड़ी के पलू में बांधकर लाई और सारी घटना से शेखा को अवगत कराया।
शेखा ने सारा वृतांत जानकर गौड़ों को तुरन्त दंड देने का मन बना लिया और झूथरी पर चढ़ाई करदी।
जमकर संघर्ष हुआ और गौड़ सरदार का सिर काटकर ले आये और उस विधवा महिला के पास भिजवा दिया।
बाद में शेखा ने वह सिर अपने अमरसर गढ़ के मुख्य द्वार भी टांगा ताकि कभी और कोई ऐसी हरकत नहीं करें।

न्याय तो हो गया लेकिन गौड़ों ने इसे अपना घोर अपमान समझा और पूरी शक्ति के साथ घाटवा के मैदान में शेखा को ललकारा। शेखा ने भी उनकी चुनौती को स्वीकारा।
दोनों ओर से घमासान मचा। शेखा को 16 घाव लगे लेकिन वे निरन्तर लड़ते रहे।
गौड उनके आगे नहीं ठहर सके किंतु इस युद्ध के बाद बैशाख शुक्ला 3 (आखा तीज) संवत् 1545 में वे अपनी राजपूती मान-मर्यादा की बेदी पर स्वर्ग सिधार गये।

संक्षेप में शेखा निडर एवं आत्म स्वाभिमानी थे।
शौर्य व साहस की प्रतिमूर्ति थे, धर्म-कर्म और पुण्य के मार्ग के अनुयायी थे।
सम्भवत: शेखा के इन्हीं पुण्यात्मकता के कारण उनके नाम से प्रसिद्ध शेखावटी अचंल आज विश्वस्तर पर नाम को रोशन कर रहा।
शेखा के बाद आठ पुत्रों की संतानें शेखावत कहलाई और इन्हीं में से एक खांप ने देश को उपराष्ट्रपति (भैरोसिंह शेखावत) दिया तो एक खांप की पुत्रवधु देश की राष्ट्रपति बनी।

ऐसे ही विश्व का सबसे धनी व्यक्ति भी इसी शेखावटी क्षेत्र की देन है। अत: स्वयं शेखा अपने समय में राजपूताने के एक ख्यातिनाम वीर पुरुष थे और आज भी उनका नाम सर्वत्र सम्मानीय है। इतिहासकार सर यदूनाथ सरकार ने भी लिखा है की जयपुर राजवंश में शेखावत सबसे बहादुर शाखा है।