सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

क्षत्राणी हाड़ी राणी

क्षत्राणी हाड़ी राणी
"सर काट सजाया थाल दी निशानी युद्ध पर जाने को।"

हे हिन्द के हिन्दुस्तानी,क्या दुनियां में देखी है ऐसी कुर्बानी-देश,धर्म तथा स्वाधीनता से विपत्ति्ग्रस्त होने पर क्षत्रिय वीर ललनाएँ किस प्रकार अपने पतियों को उत्साहित कर उन्हें कर्तव्य पथ पर स्थिर रखने के लिए आत्म-बलिदान करती थी, *(हाड़ी राणी राजपूत हाड़ा चौहान वंश की पुत्री)* ज्वलन्त दृष्टांत आत्म -त्यागिनी हाड़ी रानी की जीवनी से स्पष्ट हो रहा है। जिस समय सलूम्बर के रावत रतनसिंह जी अपनी नवयौवना पत्नी के मोह में पड़ कर क्षत्रिय कर्तव्य से विचलित हो रहे थे,उस समय उनकी धर्मपत्नी हाड़ी रानी ने उनको कर्तव्य पर स्थिर रखने के लिए अपनी जो बलि चढ़ाई थी,वह अतुलनीय है,उसकी तुलना संसार के किसी बलिदान से नहीं की जा सकती।
‎मुगल बादशाह औरंगजेब बड़ा ही अधर्मी,क्रूर एवं धर्मांध शासक था।वह किशनगढ़ राज्य की राजकुमारी चरूमती का डोला मांग रहा था । किशनगढ़ छोटी से रियासत थी और उस मुगल बादशाह का मुकाबला करने में सक्षम भी नहीं थी। राजकुमारी जब उस मुगल औरंगजेब के अधर्मी इरादे का पता चला तो वह बहुत चिंतित हुई।

‎ इसी काल में मेवाड़ में महाराणा की गद्दी पर महाराणा राजसिंह विराजमान थे जो एक वीर ओर निर्भीक शासक होने के साथ ही न्यायप्रिय भी थे। साहस ओर हिम्मत के साथ हर मुसीबत में दृढ़ता का परिचय देकर उन्होंने चारों ओर डंका बजा रखा था।उधर जब किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमती को दुष्ट औरंगजेब से बचने का कोई रास्ता समझ नहीं आया तब उसने महाराणा राजसिंह जी को मन ही मन "वरण"{पति मान लिया} कर लिया और अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु प्रार्थना की । जब राजकुमारी चारुमती का संदेश मेवाड़ पहुंचा तो असमंजस की स्थिति पैदा हो गई। एक ओर राजपूती आन-बान-मान और मर्यादा का प्रश्न था दूसरी ओर औरंगजेब जैसे शक्तिशाली और क्रूर धर्मांध बादशाह से दुश्मनी मोल लेना था।

‎मेवाड़ के राजमहल में आम सभा बुलाई गई और महाराणा राजसिंह जी ने अपने मंत्रियों और सामन्तों से मन्त्रणा करने के बाद राजकुमारी चारुमती का आग्रह स्वीकार कर लिया ।चारुमती के विवाह करने हेतु प्रस्थान की तैयारियां होने लगीं।

‎सलूम्बर के रावत रतनसिंह जी चूंडावत मेवाड़ के महाराणा राजसिंह जी के प्रमुख उमराव थे। वीरवर सलूम्बर रावत ने अपनी नव विवाहिता हाड़ी रानी को चारुमती के विनय का वर्णन सुनाया तथा कल प्रातः ही महाराणा उससे विवाह करने हेतु प्रस्थान करेंगे,इसकी सूचना दी।सारा व्रतांत सुनकर हाड़ी रानी प्रसन्न हुई और उसे इस बात की खुशी हुई कि चारुमती की रक्षा करने महाराणा राजसिंह जी तैयार हुए।
अपने पति से निवेदन करते हुए हाड़ी रानी जो कि कुछ ही दिन पहले शादी होकर ही आईं ही थी कहने लगी -- *"आपके लिए भी यह सुनहरा अवसर है। अपने स्वामी के साथ आप एक राजपूत बाला को कठिन परिस्थिति से उबारने को जारहे है। नारी की रक्षा करना क्षत्रिय का पुनीत कर्तव्य है और आप इसे भलीभांति निभायें ,यही कामना करती हूं*"। वैसे भी हाड़ा राजपूतों की बेटियां सुन्दरता के साथ -साथ वीरता एवं दबंगता में भी चारों ओर प्रसिद्ध थी। रानी दुर्गावती तथा रानी कर्णावती पूर्व में भी चित्तौड़ में जौहर की अगुवा रही थी ओर उनकी कीर्ति देश के कोने-कोने में फैली हुई थी ।
‎ रावत रत्नसिंह जी वीर और साहसी राजपूत थे किंतु वह अपनी रानी के स्नेह और प्रेम में खोये हुए थे जो नव विवाहित के लिए स्वाभाविक भी था। अपनी नव विवाहिता के सौन्दर्य को खुली आँखों से अभी निरख भी नहीं पाए थे,मधुर सपनों की कल्पना के किसलय विकसित होने से पहले ही उन्हें मुरझाते हुए प्रतीत हुए। युद्ध के लिए वीर वेश धारण कर लिया,फिर भी रावत के मन में हाड़ी रानी बसी थी,आँख उसी को निहारने हेतु एकटक झरोखे पर टिकी थी ।परम्परा के अनुसार हाड़ी रानी ने माथे पर तिलक किया विदा दी,ओर स्वयं सेना को जाते देखने के लिए महलों के "गोखले"{खिड़की} में बैठ गई ।कूच का बिगुल बजा,सेना रवाना होने लगी और चुंडावत सरदार का मन डाँवा -डोल होने लगा,घोड़ा आगे,पीछे हो रहा था,चूंडावत सरदार बैचैन थे,कुछ क्षण चला यह आलम हाड़ी रानी की नजरों से नहीं बच सका, रानी ने संदेश वाहक भेजकर पुछवाया कि *"युद्ध में जाने के समय यह हिचकिचाहट कैसी है"* सरदार ने संदेश वाहक से कहा कि "रानी से जाकर कहो,राजकुमार को उनकी निशानी चाहिए । जब रानी को संदेश वाहक ने कहा कि *"सरदार को आपकी प्रेम निशानी चाहिए"* तो हाड़ी रानी असमंजस में पड़ गई कुछ चिंतित हुई और समझ गई कि *"चूंडावत का मन डाँवा -डोल है"* और इस स्थिति में यदि ये युद्ध भूमि में गये तो इनकी वीरता, इनका साहस शायद साथ न दे और कोई अनहोनी भी हो सकती है, क्यों कि इनका मन, रानी के रूप,सौंदर्य और प्रेम में उलझ गया है ।"

‎क्षत्राणी ने कुछ पल विचार करके सोचा ओर एक ऐसा दिल दहलाने वाला निर्णय लिया जो आज से पूर्व दुनिया के इतिहास में न तो किसी ने लिया था ओर न उसके बाद भी ऐसी मिसाल आज तक कायम हो सकी। अपनी दासी को भेजकर एक थाल मंगाया तथा एक पत्र भी लिखा, रानी ने दासी को सब कुछ समझाया ओर तलवार के एक वार से अपना सिर काटकर अलग कर दिया। दासी ने उसे कहे अनुसार खुले बाल का कटा सिर एवं पत्र थाल में सजाकर चूंडावत सरदार के संदेशवाहक को दे दिया ओर रानी का संदेश भी बता दिया। चूंडावत सरदार निशानी की चाहत के लिए बेचैन थे ,संदेशवाहक के पहुंचते ही घोड़े पर बैठे -बैठे जैसे ही उसने थाल पर ढके कपड़े को हटाया विस्मय एवं आश्चर्य से वह उस प्रेम की निशानी को देखते ही आवक रह गए। प्रतिक्रिया में तांडव का भूचाल सरदार के मन में आगया। बड़े आदर ,प्रेम और सत्कार से उस रक्त रंजित कटे सिर को उठाया और खुले बालों वाले उस सिर को अपने गले में लटका लिया, जोरदार हुंकार भरी ओर घोड़े को ऐड लगाई,घोड़ा पवन गति से आगे बढ़ा औऱ चूंडावत सरदार की उस सेना ने युद्ध भूमि में पहुंचने से पूर्व पीछे मुड़कर नहीं देखा। पूर्व योजना के अनुसार इस सेना ने मुगल बादशाह औरंगजेब की सेना को रोके रखा और उधर महाराणा राजसिंह जी किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमती को ब्याह कर मेवाड़ के महलों में पहुंच गए। तत्कालीन मुगल इतिहासकारों ने भी लिखा है कि चूंडावत रत्नसिंह ने बादशाह की सेना में ऐसी तबाही मचाई कि कई मुगल सैनिक उसका रौद्र रूप देखकर आश्चर्य चकित रह गए और अपने प्राण बचा कर भागने  लगे। सलूम्बर के इस वीर योद्धा ने अपने साहस व वीरता का परिचय देकर अपने कर्तव्य का पूर्णतया पालन कर युद्ध में वीर-गति को प्राप्त किया ।

‎ हाड़ी रानी के इस बलिदान  ने उसे संसार के सतियों में एक उच्च स्थान दिया।रानी इस लोक से तो चली गई पर अमर हो गई ।इसकी तुलना संसार के किसी बलिदान से नहीं की जासकती ।जब तक धरती रहेगी,इतिहास पढ़ा जायगा तब -तब हाड़ी रानी का बलिदान अवश्य याद किया जायेगा। धन्य है वह देवी ,जिसने अपने स्वामी को कर्तव्य पर स्थिर रखने के लिए अपने जीवन की बलि चढ़ा दी ।

‎ *"चूंडावत मांगी सैनानी,सिर काट भेज दिया क्षत्राणी"*

‎धन्य है क्षत्रिय बाला,धन्य है क्षत्रिय जाति,धन्य है उसका साहस व कर्तव्य पथ और धन्य है उनका मातृभूमि के प्रति प्रेम और सम्मान।

‎हर तलवार पर,राजपूतों की कहानी है।
‎देश के हर क्षेत्र का राजपूत बलिदानी है।।
‎देश के लिए राजपूतों ने दी बड़ी बड़ी कुर्बानी है ।
‎तभी तो देश -दुनिया,राजपूतों की दीवानी है।।

‎ हे हिन्द के भाइयो,माताओ,बहिनो,हाड़ी रानी और रावत रत्न सिंह जी चूंडावत के बलिदान से शिक्षा ग्रहण के राष्ट,जाति तथा धर्म की रक्षा में अपना योगदान निहित करो,इसी में देश,धर्म और हम सब का कल्याण है ।

‎लेकिन बड़ी खुशी और गौरव की बात है कि आज भी क्षत्राणियां अपने पति और पुत्रों को सेना में जाने के लिए ओर शहादत के लिए उत्साहित कर प्रेरणा देती है। अपने बच्चों को राष्ट्रभक्ति एवं ईमानदारी का पाठ पढ़ाती है जिससे बच्चों में अपने पूर्वजों के संस्कार समाहित हो सकें । शक्ति एवं भक्ति की गंगा -यमुना की पावन पवित्र धारा में क्षत्राणियों ने जो योगदान दिया वह स्मरणीय,प्रशंसनीय तथा अनुकरणीय है।

‎लेकिन बड़ा दुर्भाग्य है कि हमारे देश के हमारे इतिहास में हमारे पूर्वजों के बलिदान को आज युवाओं को नहीं पढ़ाया जाता ।

देश स्वतंत्र होने के बाद हकीकत में राजपूतों के  वीरता -शौर्यतापूर्ण राष्ट्रभक्ति के बलिदान के इतिहास को विलुप्त किया गया । इतिहास बनाया गया ऐसे लोगों का जिनका कोई देश रक्षा में बलिदान ओर योगदान नहीं । अब युवाओं को जाग्रत होने की आवश्यकता है। अब युद्ध तलवार से नहीं बल्कि शिक्षित होकर लड़ना होगा तभी हम अपने पूर्वजों के गौरवशाली इतिहास को बचा पायेंगे ।

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