"वीर वीरमदे"
गढ़ जालोरी घणो जोर को,कान्हड़ रो दरबार।
उण रो जायो पूत वीरमदे शूराँ रो सिरदार।।
शूराँ रो सिरताज है कान्हड़,वीरम वीर प्रताप।
पिंडयाँ धुजे बैरयाँ री,अर मौत वरणीयो आप।।
कुल रो बढ़ियो मान घणो,उज्जळो गढ़ जालोर।
वीरम दे री ख्याति रा अबे,चर्चा च्यारों ओर।।
उण दिनां र माहि लगे,ख़िलजी रो दरबार।
सुन शहजादी ख्यात वीरम री,मान लियो भरतार।।
बात मान ले म्हारी फिरोजा, ख़िलजी रह्यो समझाय।
वीर घणा है जग र माँहि,वीरम न वरण्यो जाय।।
मर्दानी और एक मर्द,म्हारो वीर वीरम।
दासी उण रा चरणा री,काढू थारो भरम।।
थकियो हार्यो ख़िलजी बोल्यो,सुण वीरम म्हारी बात।
शहजादी रो वरण थे करल्यो,देश्यूँ गढ़ सौगात।।
सुण बादशाह गाँठ बंद ले,एक म्हारी तूँ बात।
धर्म राखबा खातर वीरम,छाती सह्वे आघात।।
विधर्मी ना वीर वीरम,छोड़ देऊँ दरबार।
धर्म न राखण खातर,जनम्यो ओ सिरदार।।
धर्म रूखाळा वीरम देव जी कर दीन्यो इनकार।
जाण फिरोजा आ पहुंची फेर कान्हड़ र दरबार।।
जा फिरोजा ओठी चलीज्या,तूँ दिल्ली दरबार।
धर्म न राखण गढ़ जालोरी,टुकड़ा होवे हजार।।
बातां सुणके वीरमदेव री,ख़िलजी होग्यो लाल।
सर काट क तेरो वीरम दे, करस्यूं तने हलाल।।
ख़िलजी रा लश्कर फेरूँ,करयो कूच जालोर।
वीरम देव र साथ र माँही,रण हुयो घणघोर।।
वीर वीरम दे घणो ही लड्यो,काट्या सौ मुग्लाय।
लड़ता लड़ता धर्म रूखाळो,वीरगति गयो पाय।।
जी जीवंता धर्म राखियो,राख्यो गढ़ जालोर।
धर्म री ख्याति इणसूं फैली देखो चारो ओर।।
(कुँवर आयुवान सिंह जी हुडील द्वारा रचित हठीलो राजस्थान की अन्तरकथा "वीरमदे" का काव्य रुपांतरण
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