रविवार, 19 नवंबर 2017

ममता और कर्त्तव्य।

चित्तौड़ के जौहर पर आयुवान सिंह हुडील की कहानी ममता और कर्त्तव्य

विक्रम संवत् 1360 के चैत्र शुक्ला तृतीया की रात्रि का चतुर्थ प्रहर लग चुका था । वायुमण्डल शांत था । अन्धकार शनैः शनैः प्रकाश में रूपान्तरित होने लग गया था । बसन्त के पुष्पों की सौरभ भी इसी समय अधिक तीव्र हो उठी थी । यही समय भक्तजनों के लिए भक्ति और योगियों के लिए योगाभ्यास द्वारा शान्ति प्राप्त करने का था । सांसारिक प्राणी भी वासना की निवृत्ति उपरांत इसी समय शान्ति की शीतल गोद में विश्राम ले रहे थे । चारों ओर शान्ति का ही साम्राज्य था ।

ठीक इसी समय पर चित्तौड़ दुर्ग (Chittorgarh) की छाती पर सैकड़ों चिताएँ प्रदीप्त हो उठी थी । चिर शान्ति की सुखद गोद में सोने के लिए अशान्ति के महाताण्डव का आयोजन किया जा रहा था । और ठीक इसी ब्रह्म मुहूर्त में विश्व की मानवता को स्वधर्म-रक्षा का एक अपूर्व पाठ पढ़ाया जाने वाला था । उस पाठ का आरम्भ धू-धू कर जल रही सैकड़ों चिताओं में प्रवेश (Johar of Chittorgarh) करती हुई हजारों ललनाओं के आत्मोसर्ग के रूप में हो गया था ।
“मैं सूर्य-दर्शन करने के उपरान्त शास्त्रोक्त विधि से चिता में प्रवेश करूँगी। अपने पुत्र गोरा को उसकी वृद्ध माताजी ने अपने पास बुलाते हुए कहा ।
“जो आज्ञा माताजी।’ कह कर गोरा आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए घर से बाहर निकलने लगा ।

‘‘और मैं माताजी का जौहर दर्शन करने के उपरान्त चिता-प्रवेश करूँगी |''

गोरा ने मुड़ कर देखा - पंवारजी माताजी को स्नान कराने के लिए जल का कलश ले जाते हुए कह रही थी । यदि कोई ओर समय होता तो उद्दण्ड गोरा अपनी स्त्री के इस आदेशात्मक व्यवहार को कभी सहन नहीं करता पर वह दिन तो उसकी संसार-लीला का अन्तिम दिन था । कुछ ही घड़ियों पश्चात् उसकी माता और स्त्री को अग्नि-स्नान द्वारा प्राणोत्सर्ग करना था और उसके तत्काल बाद ही गोरा को भी सुल्तान अलाउद्दीन की असंख्य सेना के साथ युद्ध करते हुए ‘धारा तीर्थ में स्नान करना था । इसीलिए असहिष्णु गोरा ने मौन स्वीकृति द्वारा स्त्री के अनुरोध का भी आज पालन कर दिया था । वह एक के स्थान पर दो चिताएँ तैयार कराने में जुट गया ।

थोड़ी देर में दो चिता सजा कर तैयार कर दी गई । उनमें पर्याप्त काष्ठ, घृत, चन्दन, नारियल आदि थे । एक चिता घर के पूर्वी आंगन में और दूसरी घर के उत्तरी अहाते की दीवार से कुछ दूर, वहाँ खड़े हुए नीम के पेड़ को बचाकर तैयार की गई थी । विधिवत् अग्निप्रवेश करवाने के लिए पुरोहितजी भी वहाँ उपस्थित थे ।

गोरा की माँ ने पवित्र जल से स्नान किया, नवीन वस्त्र धारण किए, हाथ में माला ली और वह पूर्वाभिमुख हो, ऊनी वस्त्र पर बैठकर भगवान का नाम जपने लगी । गत पचास वर्षों के इतिहास की घटनायें एक के बाद एक उस वृद्धा के स्मृति-पटल पर आकर अंकित होने लगी । उसे स्मरण हो आया कि पहले पहल जब वह नववधू के रूप में इस घर में आई थी, उसका कितना आदर-सत्कार था । गोरा के पिताजी उसे प्राणों से अधिक प्यार करते थे । वे युद्धाभियान के समय द्वार पर उसी का शकुन लेकर जाते थे और प्रत्येक युद्ध से विजयी होकर लौटते थे । विवाह के दस वर्ष उपरान्त अनेकों व्रत और उपवास करने के उपरान्त उसे गोरा के रूप में पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ था। । उस दिन पति-पत्नी को कितनी प्रसन्नता हुई थी, कितना आनन्द और उत्सव मनाया गया था। । गोरा के पिताजी ने उस आनन्द के उपलक्ष में एक ही रात में शत्रुओं के दो दुर्ग विजय कर लिए थे ।

अभी गोरा छः महीने का ही हुआ था कि सिंह के आखेट में उनका प्राणान्त हो गया था । वह उसी समय सती होना चाहती थी पर शिशु के छोटे होने के कारण वृद्ध जनों ने उसे आज्ञा नहीं दी । फिर गोरा बड़ा होने लगा। । वह कितना बलिष्ठ, उद्दण्ड, साहसी और चपल था उसने केवल बारह वर्ष की आयु में ही एक ही हाथ के तलवार के वार से सिंह को मार दिया था। और सोलह वर्ष की अवस्था में कुछ साथियों सहित बड़ी यवन सेना को लूट लाया था । इसके उपरान्त वृद्धा ने अपने मन को बलपूर्वक खींच कर भगवान में लगा दिया ।

कुछ क्षण पश्चात् उसे फिर स्मरण आया कि आज से बीस वर्ष पहले उसके घर में नववधू आई थी| वह कितनी सुशीला, आज्ञाकारिणी और कार्य दक्ष है| आज भी जब वह मुझे स्नान करा रही थी तो किस प्रकार उसकी आँखें सजल उठी थी| गोरा के उद्दण्ड और क्रोधी स्वभाव के कारण उसे कभी भी इस घर में पति-सम्मान नहीं मिला| फिर भी वह उसकी सेवा में कितनी तन्मय और सावधान रहती है| वृद्धा ने फिर अपने मन को एक झटका सा देकर सांसारिक चिन्तन से हटा लिया और उसे भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में लगा दिया । वह ओम नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र को गुनगुनाने लगी ।

कुछ क्षण पश्चात् फिर उसे स्मरण आया कि राव रतनसिंह, महारानी पद्मिनी और रनिवास की अन्य ललनायें उसका कितना अधिक सम्मान करती हैं महारानी पद्मिनी की लावण्यमयी सुकुमार देह, उसके मधुर व्यवहार और चित्तौड़ दुर्ग पर आई इस आपति का उसे ध्यान हो आया । उसने आँखें उठा कर प्राची की ओर देखा और नेत्रों से दो जल की बूंदें गिर कर उनके आसन में विलीन हो गई |

इतने में उसका पंचवर्षीय पौत्र बीजल नीद से उठ कर दौड़ा-दौड़ा आया और सदैव की भाँति उसकी गोद में बैठ गया ।
“आज दूसरे घरों में आग क्यों जल रही है दादीसा ? बीजल ने वृद्धा के मुँह पर अपने दोनों हाथ फेरते हुए पूछा । वृद्धा ने उसे हृदय से लगा लिया उसके धैर्य का बाँध टूट पड़ा, नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित हुई और उसने बीजल के सुकुमार सिर को भिगो दिया । बीजल अपनी दादी के इस विचित्र व्यवहार को बिल्कुल नहीं समझा और वह मुँह उतार कर फिर बैठ गया ।

वृद्धा ने मन ही मन कहा - ‘‘इसे कैसे बताऊँ कि अभी कुछ ही देर में इस घर में भी आग जलने वाली है जिसमें मैं, तुम्हारी माता और तुम सभी –“ वृद्धा की हिचकियाँ बन्ध गई । उसने अपनी बहू को आवाज दी - ‘‘बीजल को ले जा ?’ वह मेरे मन को अन्तिम समय में फिर सांसारिक माया में फँसा रहा है।’’

पंवारजी दही के लिए हठ करती हुई अपनी तीन वर्षीया पुत्री मीनल को गोद में लेकर आई और बीजल को हाथ पकड़ कर घर के भीतर ले गई ।
“कितना सुन्दर और प्यारा बच्चा है । ठीक गोरा पर ही गया है । बची भी कितनी प्यारी है । जब वह तुतली बोली में मुझे दादीथा कह कर पुकारती है तो कितनी भली लगती है। कुछ ही क्षणों के बाद ये भी अग्निदेव के समर्पित हो जायेंगे । हाय ! मेरे गोरा का वंश ही विच्छेद हो जाएगा | एक गोरा का क्या आज न मालूम कितनों के वंश-प्रदीप बुझ रहे हैं । यह सोचते हुए वृद्धा की आँखों में फिर अश्रुधारा प्रकट हो गई । उसने बड़ी कठिनाई से अपने को सम्हाला; सुषुप्त आत्मबल का आह्वान किया और फिर नेत्र बन्द करके ईश्वर के ध्यान में निमग्न हो गई ।

गोरा अब तक यंत्रवत् सब कार्य करने में तल्लीन था । उसने अब तक न निकट भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं पर ही कुछ सोचा था और न अपने मन को ही किसी विकार से उद्वेलित किया था । पर जब जौहर-व्रत सम्बन्धी सम्पूर्ण व्यवस्था समाप्त हो गई तब उसने भाव रहित मुद्रा में प्राची की ओर देखा । उषाकाल प्रारम्भ होने ही वाला था । प्राची में उदित अरूणाई के साथ ही साथ उसे अपनी माता का स्मरण हो आया । उसे स्मरण हो आया कि एक घड़ी पश्चात् सूर्योदय होते ही उसकी पूजनीया वृद्धा माँ अग्निप्रवेश करेगी और वह पास खड़ा-खड़ा उस दृश्य को देखेगा । वह कठोर हृदय था, कूर स्वभाव का था, साहसी और वीर था पर उच्चकोटि का मातृभक्त भी था । अब तक कभी भी उसने माता की अवज्ञा नहीं की थी । माता भी उसे बहुत अधिक प्यार करती थी और वह भी माता का बहुत अधिक सम्मान करता था । पिता का प्यार उसे प्राप्त नहीं हुआ था, पर माता की स्नेह सिंचित शीतल गोद में लिपटकर ही वह इतना साहसी और वीर बना था । माता का अमृत तुल्य पय-पान कर ही उसने इतना बल-वीर्य प्राप्त किया था; उसकी ओजमयी वाणी से प्रभावित होकर उसने अब तक शत्रुओं का मान मर्दन किया था । उसके स्वास्थ्य, कल्याण और उसकी दीर्घायु के लिए उसकी माता ने न मालूम कितने ही व्रत-उपवास किये थे, कितने देवी-देवताओं से प्रार्थना की थी; यह सब गोरा को ज्ञात था । माता के कोटि-कोटि उपकारों से उसका रोम-रोम उपकृत और कृतज्ञ हो रहा था|

तीर्थों में गंगा सबसे पवित्र है, पर गोरा की दृष्टि में उसकी माता की गोद से बढ़ कर और कोई तीर्थ पवित्र नहीं था । उसके लिए मातृ-सेवा ही सब तीर्थ-स्नान के फल से कहीं अधिक फलदायी थी । माता गोरा के लिए आदि शक्ति योगमाया का ही दूसरा रूप है । वही उसके लिए विपत्ति के समय रक्षा का विधान करती और सुख के समय उसे खिलातीपिलाती और अपनी पवित्र गोद में लिपटाती । वही परम पवित्र माता कुछ ही क्षण पश्चात् चिता में प्रवेश कर भस्म हो जाएगी और भस्म इसलिए हो जायेगी कि गोरा जैसा निर्वीर्य पुत्र उसे बचा नहीं सकता । उसे अपने पुरुषार्थ पर लज्जा आई, विवशता पर क्रोध आया ।
उसने मन ही मन अपने आपको धिक्कारा - “मैं कितना असमर्थ हूँ कि आज अपनी प्राणप्रिय माताजी को भी नहीं बचा सकता ।

फिर उसे ध्यान आया -‘‘मेरी जैसी हजारों माताएँ आज चिता-प्रवेश कर रही हैं और मैं निर्लज्ज की भाँति खड़ा-खड़ा उन्हें देख रहा हूँ, अपने हाथों चिता में आग लगा रहा हूँ, धिक्कार है मेरे पुरूषार्थ को, धिक्कार है मेरे बाहुबल को और धिक्कार है मेरे क्षत्रियत्व को। गोरा उत्तेजित हो उठा और शत्रुओं पर टूट पड़ने के लिए कमर में टंगी हुई तलवार लेने के लिए झपट पड़ा । सहसा उसे ध्यान आया कि अभी तो जौहर-व्रत पूरा करवाना है। वह रुका और पूर्वी तिबारी में बैठी हुई माँ के चरणों में अन्तिम प्रणाम करने के लिए चल पड़ा ।

गोरा ने अत्यन्त ही भक्तिपूर्वक ईश्वर ध्यान में निमग्न माता को चरण छूकर प्रणाम किया । माता ने पुत्र को देखा और पुत्र ने माता को देखा । दोनों ओर से स्नेह-सरितायें उमड़ पड़ी । गोरा अबोध शिशु की भाँति माता की गोद में लेट गया । उसका पत्थर तुल्य कठोर हृदय भी माता की शीतल गोद का सान्निद्य प्राप्त कर हिमवत् द्रवित हो चला । माता ने अपना सर्वसुखकारी स्नेहमय हाथ गोरा के माथे पर फेरा और कहने लगी ।

“गोरा तुम्हारा परम सौभाग्य है । स्वतंत्रता, स्वाभिमान, कुल-मर्यादा और सतीत्व रूपी स्वधर्म पर प्राण न्यौछावर करने का सुअवसर किसी भाग्यवान क्षत्रिय को ही प्राप्त होता है। तुमन आज उस दुर्लभ अवसर को अनायास ही प्राप्त कर लिया है । ऐसे ही अवसरों पर प्राणोत्सर्ग करने के लिए राजपूत माताएँ पुत्रों को जन्म देती है । वास्तव में मेरा गर्भाधान करना और तुम जैसे पुत्र को जन्म देना आज सार्थक हुआ है । बेटा, उठ ! यह समय शोक करने का नहीं है ।’ कहते हुए माता ने बड़े ही स्नेह से गोरा के आँसू अपने हाथों से पोंछे ।

मातृ-प्रेम में विह्वल गोरा पर इस उपदेश का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा । उसकी आँखों का बाँध टूट गया । वह अबोध शिशु की भाँति माता से लिपट गया । रण में शत्रुओं के लिए महाकाल रूपी गोरा आज माता की गोद में दूध-मुँहा शिशु बन गया था । कौन कह सकता था कि क्रूरता, कठोरता, रूद्रता और निडरता की साक्षात् मूर्ति, माँ की गोद में अबोध शिशु की भाँति सिसकियाँ भरने वाला यही गोरा था ।

माता ने अपने दोनों हाथों के सहारे से गोरा को बैठाया । वह फिर बोली - ‘‘बेटा! तुझे अभी बहुत काम करना है । मुझे जौहर करवाना है, फिर बहू को सौभाग्यवती बनाना है और बच्चों को भी ..... | यह कहते-कहते वात्सल्य का बाँध भी उमड़ पड़ा, पर उसने तत्काल ही अपने को सम्हाल लिया । वह आगे बोल उठी – ‘‘तेरा इस समय इस प्रकार शोकातुर होना उचित नहीं । तेरी यह दशा देख कर मेरा और बहू का मन भी शोकातुर हो जाता है । पवित्र जौहर-व्रत के समय स्त्रियों को विकारशून्म मन से प्रसन्नचित्त हो चिता में प्रवेश करना चाहिए तभी जौहर-व्रत का पूर्ण फल मिलता है, नहीं तो वह आत्महत्यातुल्य निकृष्ट कर्म हो जाता है।

इतने में पुरोहित ने आकर सूचना दी - माताजी सूर्योदय होने वाला है; चिता-प्रवेश का यही शुभ समय है । माता तुरन्त वहाँ से उठ खड़ी हुई और चिता के पास आकर खड़ी हो गई । गोरा फूट-फूट कर रोने लगा । पुरोहित ने सांत्वना बंधाते हुए कहा -

“गोराजी किसके लिए अज्ञानी पुरूष की भाँति शोक करते हो । क्योंकि -
’’न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||’’

अब गोरा ने अपने को सम्भाला । उसने अपनी स्त्री और बालकों सहित माँ की परिक्रमा की । माता ने उनका माथा सूघा और आशीर्वाद दिया । “शीघ्रता करिए। पुरोहित ने चिता पर गंगाजल छिड़कते हुए कहा ।

वृद्धा ने तीन बार चिता की परिक्रमा की और फिर प्राची में उदित होते हुए सूर्य को नमस्कार किया और प्रसन्न मुद्रा में वह चिता पर चढ़कर बैठ गई । उसने अपने मुँह में गंगाजल, तुलसी-पत्र और थोड़ा सा स्वर्ण रखा और ब्राह्मणों को भूमिदान करने का संकल्प किया ।

गोरा ने कहा - ‘‘अन्तिम प्रार्थना है माँ ! स्वर्ग में मेरे लिए अपनी सुखद गोद खाली रखना और यदि संसार में जन्म लेने का अवसर आए तो जन्म-जन्म में तू मेरी माता और मैं तेरा पुत्र होऊँ ।’

माता ने हाथ की उंगली ऊपर कर ईश्वर की ओर संकेत किया और “मेरे दूध की लज्जा रखना बेटा ।’’ कह कर आँखें बन्द कर ध्यानमग्न हो गई । पुरोहित ने वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ अग्नि प्रज्जवलित की । गोरा ने देखा स्वर्णिम लपटों से गुम्फित उसकी माता कितनी दैदीप्यमान लग रही थी । देवताओं के यज्ञ-कुण्ड में से प्रकटित जग-जननी दुर्गा के तुल्य उसने ज्वाला-परिवेष्ठित अपनी माता के मातृ स्वरूप को मन ही मन नमस्कार किया और आत्मा की अमरता का प्रतिपादन करता हुआ गुनगुना उठा -

’ ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’
पुरोहित ने चिता में शेष घृत को छोड़ते हुए श्लोक के दूसरे चरण को पूरा किया‘‘न चैनं कलेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः ।।'

गोरा ने कर्त्तव्य के एक अध्याय को समाप्त किया और वह दूसरे की तैयारी में जुट पड़ा । अलसाए हुए नेत्रों सहित वह उत्तरी चिता के जाकर खड़ा हो गया । पंवारजी ने चंवरी के समय के अपने वस्त्र निकाले, उन्हें पहना, माँग में सिन्दूर भरा, आँखों में काजल लगाया और वह नवदुल्हन सी सजधज कर घर के बाहर आ गई । उसने बीजल का हाथ पकड़ते हुए मीनल को गोरा की गोद में देते हुए मुस्करा कर कहा -
“लो सम्हालो अपनी धरोहर, मैं तो चली।“ गोरा ने बीजल की अंगुली पकड़ ली और मीनल को अपनी गोद में बैठा लिया । उसने देखा पंवारजी आज नव-दुलहन से भी अधिक शोभायमान हो रही थी । वह प्रसन्न मुद्रा में थी और उसके चेहरे पर विषाद की एक भी रेखा नहीं थी । गोरा ने मन ही मन सोचा - ‘‘मैंने इस देवी की सदैव अवहेलना की है। इसका अपमान किया है । अन्तिम समय में थोड़ा पश्चाताप तो कर लूं ॥“
उसने कहा - ‘‘पंवारजी मैंनें तुम्हे बहुत दुःख दिया है । क्या अन्तिम समय में मेरे अपराधों को नहीं भूलोगी ।'
“यह क्या कहते हैं नाथ आप । मैं तो आपके चरणों की रज हूँ और सदैव आपके चरणों की रज ही रहना चाहती हूँ । परसों गौरी-पूजन (गणगौर) के समय भी मैंनें भगवती से यही प्रार्थना की थी कि वह जन्म-जन्म में आपके चरणों की दासी होने का सौभाग्य प्रदान करें |'' “पंवारजी मैंनें आज अनुभव किया कि तुम स्त्री नहीं साक्षात् देवी हो।

“सो तो हूँ ही । परम सौभाग्यवती देवी हूँ इसलिए पति की कृपा की छाया में स्वर्ग जा रही हूँ ।’ यह कह कर पंवार जी तनिक सी मुस्कराई और फिर बोल उठी -

“इस घर में आपके पीछे होकर आई पर स्वर्ग में आगे जा रही हूँ । क्यों नाथ ! मैं बड़ी हुई या आप ?’ परिस्थितियों की इस वास्तविक कठोरता के समय किये गये इस व्यंग से गोरा में किंचित् आत्महीनता की भावना उदय हुई उसके मानस प्रदेश पर भावों का द्वन्द्व मच गया और उसकी वाणी कुण्ठित हो गई ।

इसके उपरान्त पंवारजी आगे बढी । उसने बीजल और मीनल को चूमा, उनके माथों पर प्यार का हाथ फेरा । स्वामी की परिक्रमा की, उसके पैर छुए और वह बोली -

“नाथ ! स्वर्ग में प्रतीक्षा करती रहूँगी, शीघ्र पधार कर इस दासी को दर्शन देना । स्वर्ग में मैं आपके रण के हाथों को देखेंगी । देखेंगी आप किस भाँति मेरे चूड़े का सम्मान बढ़ाते हैं ।’’

गोरा ने सोचा - “ये अबला कहलाने वाली नारियाँ पुरूषों से कितनी अधिक साहसी, धैर्यवान और ज्ञानी होती हैं। इस समय के साहस और वीरत्व के समक्ष युद्धभूमि में प्रदर्शित साहस और वीरत्व उसे अत्यन्त ही फीके जान पड़े | उसने पहली बार अनुभव किया कि नारी पुरूषों से कहीं अधिक श्रेष्ठ होती हैं । अब उसके साहस, धैर्य और वीरता का गर्व गल चुका था । वह बोल उठा -

पंवारजी तुमने अन्तिम समय में मुझे परास्त कर दिया। मैं भगवान सूर्य की साक्षी देकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम्हारे चूड़े के सम्मान को तनिक भी ठेस नहीं पहुँचने ढूँगा।" बोली पंवारजी ने सब शास्त्रीय विधियों को पूर्ण किया और फिर पति से हाथ जोड कर बोली-
“नाथ मैं चिता में स्वयं अग्नि प्रज्जवलित कर दूँगी। आप मोह और ममता की फॉस इन बच्चों को लेकर थोड़े समय के लिए दूर पधार जाइये।”
गोरा मन्त्र मुग्ध सा -
‘‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’
गुनगुनाता हुआ दोनों बालकों को गोद में उठाकर घर के भीतर चला गया ।
“दादीसा जल क्यों गए पिताजी ? बीजल ने उदास मुद्रा में पूछा ।
“दादीसा भगवान के पास चली गई है बेटा।”
‘‘हम लोग क्यों नही चलते ।’’
“अभी थोड़ी देर बाद चलेंगे बेटा।'
गोरा ने अपने पुत्र के भोले मुँह को देखा । वह उसकी जिज्ञासा को किन शब्दों में शान्त करे, यह सोच नहीं सका ।
इतने में “भाभू जाऊँ , भाभू जाऊँ “ कह कर मीनल मचल उठी और उसने गोरा की गोद से कूद कर माता के पास जाने के लिए अपने नन्हें से दोनों पैरों को नीचे लटका दिया|

गोरा ने मचलती हुई मीनल के चेहरे को देखा । उसे उसका निर्दोष, भोला और करूण मुख अत्यन्त ही भला जान पड़ा ।

वह आंगन में रखी चारपाई पर बैठ गया और उसने पुत्र और पुत्री को दोनों हाथों से वक्षस्थल से चिपटा लिया । वात्सल्य की सरिता उमड़ चली । वह सोचने लगा - “किस प्रकार अपने हृदय के टुकड़ों को अपने ही हाथों से अग्नि में फेंकूं ? हाय ! मैं कितना अभागा हूँ, लोग सन्तान प्राप्ति के लिये नाना प्रकार के जप-तप करते और कष्ट उठाते हैं पर मैं आप, अपने सुमन से सुन्दर सुकुमार और निर्दोष बच्चों के स्वयं प्राण ले रहा हूँ। मैं सन्तानहत्यारा नहीं बनूंगा, चाहे म्लेच्छ इन्हें उठाकर ले जायें पर अपने हाथों इनका वध नहीं करूँगा ।’’

इतने में “भाभू जाऊँ , भाभू जाऊँ “ कह कर मीनल मचल उठी ।
गोरा उन बालकों को गोदी में उठा कर छत पर ले गया । उसने देखा - ‘‘धॉयधाँय कर सैकड़ों चिताएँ जल रही थी । उनमें न मालूम कितने इस प्रकार के निर्दोष बालकों को स्वाहा किया गया था । उसने देखा मुख्य जौहर-कुण्ड से निकल रही भयंकर अग्नि की लपटों ने दिन के प्रकाश को भी तीव्र और भयंकर बना दिया था ।

“हा, महाकाल ! मुझसे यह जघन्य कृत्य मत करा। हा, देव ! इतनी कठोर परीक्षा तो हरिशचन्द्र की भी नहीं ली थी ।' कहता हुआ गोरा बालकों का मुँह देख कर रो पड़ा । पिता का हृदय था, द्रवित हो बह चला ।

उसने फिर पूर्व की ओर दृष्टिपात किया । उसकी दृष्टि सुल्तान के शिविर पर गई । उसका रोम-रोम क्रोध से तमक उठा । प्रतिहिंसा की भयंकर ज्वाला प्रज्जवलित हो उठी । द्रवित हृदय भी उससे कुछ कठोर हुआ । उसने सोचा -
“मैं क्यों शोक कर रहा हूँ । मुझे तो अपने सौभाग्य पर गर्व करना चाहिए ।“ उसे अपनी माता और पत्नी का चिता-प्रवेश और उपदेश स्मरण हो आया । ‘
‘मैं अपने इन नौनिहालों को सतीत्व और स्वतंत्रता रूपी स्वधर्म की बलि पर चढ़ा रहा हूँ । वास्तव में मैं भाग्यवान हूँ ।’ वह तमक कर उठ बैठा और बच्चों को गोदी में उठा कर कहने लगा-
“चलो तुम्हें अपनी भाभू के पास पहुँचा आऊँ ',
’’नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’

गुनगुनाता हुआ वह पंवारजी की चिता के पास बालकों को लेकर चला आया । चिता इस समय प्रचण्डावस्था में धधक रही थी । गोरा ने अपने हृदय को कठोर किया और भगवान का मन में ध्यान किया । फिर अपना दाहिना पैर कुछ आगे करके वह दोनों बालकों को दोनों हाथों से पकड़ कर थोड़ा सा झुला कर चिता में फेंकने वाला था कि पुत्र और पुत्री चिल्ला कर उसके हाथ से लिपट गए । उन्होंने अपने नन्हें-नन्हें सुकोमल हाथों से दृढ़तापूर्वक उसके अंगरखे की बाँहों को पकड़ लिया और कातरता और करूणापूर्ण दृष्टि से टुकर-टुकर पिता के मुँह की ओर देखने लग गए । ऐसा लगा मानों अबोध बालकों को भी पिता का भीषण मन्तव्य ज्ञात हो गया था । उस समय इन बालकों की आँखों में बैठी हुई साकार करूणा को देखकर क्रूर काल का भी हृदय फट जाता । गोरा उनकी आँखों की प्रार्थना स्वीकार कर कुछ कदम चिता से पीछे हट गया । चिता की भयंकर गर्मी और भयावनी सूरत को देखकर मीनल अत्यन्त ही भयभीत हो गई थी; उसने भाभू जाऊँ, भाभू जाऊँ की रट भय के मारे बन्द कर दी । बीजल इस नाटक को थोड़ा बहुत समझ चुका था । उसने पिता से कहा –
“पिताजी ! मैं भी ललाई में तलँगा । मुझे आग में क्यों फेंकते हो?

ममता की फिर विजय हुई । गोरा ने उन दोनों बालकों को हृदय से लगा लिया । उनके सिरों को चूमा और सोचा, – “पीठ पर बाँध कर दोनों को रणभूमि में ही क्यों नहीं ले चलूं ?“ थोड़ी देर में विचार आया, - “ऐसा करने से अन्य योद्धा मेरी इस दुर्बलता और कायरता के लिए क्या सोचेंगे ?“ ये दो ही नहीं हजारों बालक आज भस्मीभूत हो। रहे हैं ।

वह फिर साहस बटोर कर उठा - अपने ही शरीर के दो अंशो को अपने ही हाथों आग में फेंकने के लिए । उसने हृदय कठोर किया, भगवान से बालकों के मंगल के लिए प्रार्थना की; अपने इस राक्षसी कृत्य के लिए क्षमा माँगी और मन ही मन गुनगुना उठा -
“हा क्षात्र-धर्म, तू कितना कूर और कठोर है ।“ बीजल नहीं पिताजी-नहीं पिताजी' चिल्लाता हुआ उसके अंगरखे की छोर पकड़ कर चिपट रहा था, मीनल ने कॉपते हुए अपने दोनों नन्हें हाथ पिता के गले में डाल रखे थे । दोनों बालकों की करूणा और आशाभरी दृष्टि पिता के मुंह पर लगी हुई थी ।
गोरा ने ऑखें बन्द की और कर्त्तव्य के तीसरे अध्याय को भी समाप्त किया । अग्नि ने अपनी जिह्वा से लपेट कर दोनों बालकों को अपने उदर में रख लिया । ममता पर कर्त्तव्य की विजय हुई ।
गोरा पागल की भाँति लपक कर घर के भीतर आया । अब घर उसे प्रेतपुरी सा भयंकर जान पड़ा । वह उसे छोड़ कर बाहर भागना चाहता था कि सुनाई दिया -
“कसूमा का निमन्त्रण है, शीघ्र केसरिया करके चले आइए।’’

अब गोरा कर्त्तव्य का चौथा अध्याय पूर्ण करने जा रहा था । उसे न सुख था और न दु:ख, न शोक था और न प्रसन्नता । वह पूर्ण स्थितप्रज्ञ था । मार्ग में धू-धू करती हुई सैकड़ों चिताएँ जल रही थी । भुने हुए मानव माँस से दुर्गन्ध उठी और धुआँ ने उसे तनिक भी विचलित और प्रभावित नहीं किया । वह न इधर देखता था और न उधर, बस बढ़ता ही जा रहा था ।

(आयुवान सिंह साहब की कलम से)
ममता और कर्त्तव्य।

अबखी वेळा आय

**अबखी वेळा आय**

भीड़ पड़ी जद भाटियों, आवड़ तूटी आय।
तारिया गढ तणोट में,अबखी वेळा आय।।1

जादम कुळ रै जोर'में,सांपरत री सहाय।
रही साथ तणराव'रै,अबखी वेळा आय।।2

भादरियो मनभावणौ,आयल बैठा आय।
संकट मेटै शंकरी,अबखी वेळा आय।।3

मरूधरा रै मांयनै, सदा रेजै सहाय।
भगतां दाळद मेटजै ,अबखी वेळा आय।।4

अकबरियौ चढ आवियौ,कटक दळ कटकाय।
पत राखी परताप री,अबखी वेळा आय।।5

अंबा आयल ईसरी,जगजणणी जगराय।
रजवट राखै रंग'तू,अबखी वेळा आय।।6

दोखी सगळा देश'रा,रळिया भेळा आय।
भार उतारै भोम'रौ,अबखी वेळा आय।।7

पीथळ थारौ बाळकौ,सवांगिया सुरराय।
सबद ओपता सूंपजै,अबखी वेळा आय।।8

© पृथ्वीराजसिंह बेरू।

Warriors of Rajasthan


1. *बप्पा रावल*- अरबो, तुर्को को कई हराया ओर हिन्दू धरम रक्षक की उपाधि धारण की
2. *भीम देव सोलंकी द्वितीय* - मोहम्मद गौरी को 1178 मे हराया और 2 साल तक जेल मे बंधी बनाये रखा
3. *पृथ्वीराज चौहान* - गौरी को 16 बार हराया और और गोरी बार बार कुरान की कसम खा कर छूट जाता ...17वी बार पृथ्वीराज चौहान हारे
4. *हम्मीरदेव (रणथम्बोर)* - खिलजी को 1296 मे अल्लाउदीन ख़िलजी के 20000 की सेना में से 8000 की सेना को काटा और अंत में सभी 3000 राजपूत बलिदान हुए राजपूतनियो ने जोहर कर के इज्जत बचायी ..हिनदुओ की ताकत का लोहा मनवाया
5. *कान्हड देव सोनिगरा* – 1308 जालोर मे अलाउदिन खिलजी से युद्ध किया और सोमनाथ गुजरात से लूटा शिवलिगं वापिस राजपूतो के कब्जे में लिया और युद्ध के दौरान गुप्त रूप से विश्वनीय राजपूतो , चरणो और राजपुरोहितो द्वारा गुजरात भेजवाया तथा विधि विधान सहित सोमनाथ में स्थापित करवाया
6. *राणा सागां*- बाबर को भिख दी और धोका मिला ओर युद्ध . राणा सांगा के शरीर पर छोटे-बड़े 80 घाव थे, युद्धों में घायल होने के कारण उनके एक हाथ नही था एक पैर नही था, एक आँख नहीं थी उन्होंने अपने जीवन-काल में 100 से भी अधिक युद्ध लड़े थे.
7. *राणा कुम्भा* - अपनी जिदगीँ मे 17 युदध लडे एक भी नही हारे
8. *जयमाल मेड़तिया*- ने एक ही झटके में हाथी का सिर काट डाला था। चित्तोड़ में अकबर से हुए युद्ध में *जयमाल राठौड़* पैर जख्मी होने कि वजह से *कल्ला जी* के कंधे पर बैठ कर युद्ध लड़े थे, ये देखकर सभी युद्ध-रत साथियों को चतुर्भुज भगवान की याद आयी थी, जंग में दोनों के सिर  काटने के बाद भी धड़ लड़ते रहे और 8000 राजपूतो की फौज ने 48000 दुश्मन को मार गिराया ! अंत में अकबर ने उनकी वीरता से प्रभावित हो कर जयमाल मेड़तिया और पत्ता जी की मुर्तिया आगरा के किलें में लगवायी थी.
9. *मानसिहं तोमर*- महाराजा मान सिंह तोमर ने ही ग्वालियर किले का पुनरूद्धार कराया और 1510 में सिकंदर लोदी और इब्राहीमलोदी को धूल चटाई
10. *रानी दुर्गावती*- चंदेल राजवंश में जन्मी रानी दुर्गावती राजपूत राजा कीरत राय की बेटी थी। गोंडवाना की महारानी दुर्गावती ने अकबर की गुलामी करने के बजाय उससे युद्ध लड़ा 24 जून 1564 को युद्ध में रानी दुर्गावती ने गंभीर रूप से घायल होने के बाद अपने आपको मुगलों के हाथों अपमान से बचाने के लिए खंजर घोंपकर आत्महत्या कर ली।
11. *महाराणा प्रताप* - इनके बारे में तो सभी जानते ही होंगे ... महाराणा प्रताप के भाले का वजन 80 किलो था और कवच का वजन 80 किलो था और कवच, भाला, ढाल, और हाथ मे तलवार का वजन मिलाये तो 207 किलो था.
12. *जय सिंह जी* - जयपुर महाराजा ने जय सिंह जी ने अपनी सूझबुज से छत्रपति शिवजी को औरंगज़ेब की कैद से निकलवाया बाद में औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उनकी हत्या विष देकर करवा डाली
13. *छत्रपति    शिवाजी* - मेवाड़ सिसोदिया वंशज छत्रपति शिवाजी ने औरंगज़ेब को हराया तुर्को और मुगलो को कई बार हराया
14. *रायमलोत कल्ला जी* का धड़ शीश कटने के बाद लड़ता- लड़ता घोड़े पर पत्नी रानी के पास पहुंच गया था तब रानी ने गंगाजल के छींटे डाले तब धड़ शांत हुआ उसके बाद रानी पति कि चिता पर बैठकर सती हो गयी थी.
15. सलूम्बर के नवविवाहित *रावत रतन सिंह चुण्डावत* जी ने युद्ध जाते समय मोह-वश अपनी पत्नी हाड़ा रानी की कोई निशानी मांगी तो रानी ने सोचा ठाकुर युद्ध में मेरे मोह के कारण नही लड़ेंगे तब रानी ने निशानी के तौर
पैर अपना सर काट के दे दिया था, अपनी पत्नी का कटा शीश गले में लटका औरंगजेब की सेना के साथ भयंकर युद्ध किया और वीरता पूर्वक लड़ते हुए अपनी मातृ भूमि के लिए शहीद हो गये थे.
16. औरंगज़ेब के नायक तहव्वर खान से गायो को बचाने के लिए पुष्कर में युद्ध हुआ उस युद्ध में *700 मेड़तिया राजपूत* वीरगति प्राप्त हुए और 1700 मुग़ल मरे गए पर एक भी गाय कटने न दी उनकी याद में पुष्कर में गौ घाट बना हुआ है
17. एक राजपूत वीर जुंझार जो मुगलो से लड़ते वक्त शीश कटने के बाद भी घंटो लड़ते रहे आज उनका सिर बाड़मेर में है, जहा छोटा मंदिर हैं और धड़ पाकिस्तान में है.
18. जोधपुर के *यशवंत सिंह* के 12 साल के पुत्र *पृथ्वी सिंह* ने हाथो से औरंगजेब के खूंखार भूखे जंगली शेर का जबड़ा फाड़ डाला था.
19. *करौली के जादोन राजा* अपने सिंहासन पर बैठते वक़्त अपने दोनो हाथ जिन्दा शेरो पर रखते थे.
20. हल्दी घाटी की लड़ाई में मेवाड़ से 20000 राजपूत सैनिक थे और अकबर की और से 85000 सैनिक थे फिर भी अकबर की मुगल सेना पर हिंदू भारी पड़े
21. राजस्थान पाली में आउवा के *ठाकुर खुशाल सिंह* 1857 में अजमेर जा कर अंग्रेज अफसर का सर काट कर ले आये थे और उसका सर अपने किले के बाहर लटकाया था तब से आज दिन तक उनकी याद में मेला लगता है
22. *जौहर :* युद्ध के बाद अनिष्ट परिणाम और होने वाले अत्याचारों व व्यभिचारों से बचने और अपनी पवित्रता कायम रखने हेतु महिलाएं अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा कर,तुलसी के साथ गंगाजल का पानकर जलती चिताओं में प्रवेश कर अपने सूरमाओं को निर्भय करती थी कि नारी समाज की पवित्रता अब अग्नि के ताप से तपित होकर कुंदन बन गई है और राजपूतनिया जिंदा अपने इज्जत कि खातिर आग में कूद कर आपने सतीत्व कि रक्षा करती थी | पुरूष इससे चिंता मुक्त हो जाते थे कि युद्ध परिणाम का अनिष्ट अब उनके स्वजनों को ग्रसित नही कर सकेगा | महिलाओं का यह आत्मघाती कृत्य जौहर के नाम से विख्यात हुआ| सबसे ज्यादा जौहर और शाके चित्तोड़ के दुर्ग में हुए | शाका : महिलाओं को अपनी आंखों के आगे जौहर की ज्वाला में कूदते देख पुरूष कसुम्बा पान कर,केशरिया वस्त्र धारण कर दुश्मन सेना पर आत्मघाती हमला कर इस निश्चय के साथ रणक्षेत्र में उतर पड़ते थे कि या तो विजयी होकर लोटेंगे अन्यथा विजय की कामना हृदय में लिए अन्तिम दम तक शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का ज्यादा से ज्यादा नाश करते हुए रणभूमि में चिरनिंद्रा में शयन करेंगे | पुरुषों का यह आत्मघाती कदम शाका के नाम से विख्यात हुआ
""जौहर के बाद राजपूत पुरुष जौहर कि राख का तिलक कर के सफ़ेद कुर्ते पजमे में और केसरिया फेटा ,केसरिया साफा या खाकी साफा और नारियल कमर पर बांध कर तब तक लड़के जब तक उन्हें वीरगति न मिले ये एक आत्मघाती कदम होता। ....."""|
卐 *जैसलमेर* के जौहर में 24,000 राजपूतानियों ने इज्जत कि खातिर अल्लाउदीन खिलजी के हरम जाने की बजाय आग में कूद कर अपने सतीत्व के रक्षा कि ..
卐 1303 चित्तोड़ के दुर्ग में सबसे पहला जौहर चित्तोड़ की *महारानी पद्मिनी* के नेतृत्व में 16000 हजार राजपूत रमणियों ने अगस्त 1303 में किया था |
卐 चित्तोड़ के दुर्ग में दूसरे जौहर चित्तोड़ की *महारानी कर्मवती* के नेतृत्व में 8,000 हजार राजपूत रमणियों ने 1535 AD में किया था |
卐 चित्तोड़ के दुर्ग में तीसरा जौहर अकबर से हुए युद्ध के समय 11,000 हजार राजपूत नारियो ने 1567 AD में किया था |
卐 ग्वालियर व राइसिन का जोहर ये जोहर तोमर सहिवाहन पुरबिया के वक़्त हुआ ये राणा सांगा के रिशतेदार थे और खानवा युद्ध में हर के बाद ये जोहर हुआ
卐 ये जोहर अजमेर में हुआ पृथ्वीराज चौहान कि शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी से ताराइन की दूसरी लड़ाई में हार के बाद हुआ इसमें *रानी संयोगिता* ने महल उपस्थित सभी महिलाओं के साथ जौहर किया ) जालोर का जौहर ,बारमेर का जोहर आदि
""". इतिहास गवाज है हम राजपूतो की हर लड़ाई में दुश्मन सेना तिगुनी चौगनी होती थी राजस्थान मालवा और सौराष्ट्र में मुगलो ने एक भी हमला राजपूतो पर तिगुनी और चौगनी फ़ौज से कम के बिना नही नही किया पर युद्ध के अंतः में दुश्मन आधे से ऊपर मारे जाते थे ""

卐卐 तलवार से कडके बिजली, लहु से लाल हो धरती, प्रभु ऐसा वर दो मोहि, विजय मिले या वीरगति ॥ 卐卐
*|| जय एकलिंग जी की ||*
*११ जय श्री कल्याण ११*

शनिवार, 18 नवंबर 2017

छेड़बा

गड्ढे में एक शेर गिर गया ।
परेशान होकर शेर यहाँ वहां देखने लगा पर उसे कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था ।
तभी वहां एक पेड़ में एक बन्दर आ गया ,
शेर को इस हाल में फंसा देखकर बन्दर ,
शेर का मजाक उडाने लगा , "
क्यों शेर तू तो राजा बना फिरता है अब तो तेरी अकल ठिकाने आ गयी न,
अब शिकारी तुझे मiरेंगे ,
तेरी खाल निकालकर दीवार पर सजायेंगे,
तेरे नाखून और दांत निकाल कर दवाई बनायेंगे ।
तभी वो डाल जिसमें बन्दर बैठा था ,टूट गयी और बन्दर सीधे शेर के सामने आ गिरा ।
गिरते ही बोला
" बाप की सोगन ......माफ़ी मांगबा न  नीचे कूदयो हूँ "
मन कोई मज़ो थोड़ी आवे थान छेड़बा म

सोमवार, 13 नवंबर 2017

देशी घी "या "डालडा" की.


एक बार एक राजस्थानी आदमी समुद्र में नहाते हुए डूबने
लगता
.
तो वह भगवान से प्रार्थना करते हुए कहता है,
.
" हे भगवान!
.
मैं बच गयो तो 100 गरीबां ने लापसी
खिलाऊं"।
.
अभी उसकी बात ख़त्म ही हुई होती है की एक
तेज़ लहर उसे किनारे पर फेंक देती है।
.
जैसे ही वह आदमी किनारे पर पहुंचा,
.
उसने ऊपर देखा और अकड़ में कहा,
"कसी लापसी"?
.
तभी अचानक एक और लहर आयी और उसे
वापस समुद्र में ले गयी।
.
आदमी रोते हुए बोला: भगवान, मारो मतलब है
"देशी घी "या "डालडा" की...
?

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

पदमण सुजस प्रकास।

पापी के खपिया प्रिथी,
विटळा केक विनास।
जस धिन दूणो जगमगै,
पदमण तणो प्रकास।।
जिण झाळां री झाट सूं,
खपियो खिलजी खास।
प्रिथमी सारी पसरियो,
पदमण सुजस प्रकास।।
सत उर में साहस सधर,
जबर वर्यो जसवास।
सांम नांम स्वाभिमान रो,
पदमण तणो प्रकास।।
आय अलाऊदीन ऊ,
निसचै हुवो निरास।
वर अगनी कीधो वसू,
पदमण सुजस प्रकास।।
जणणी घरणी जिकणी,
घणा करै घरवास।
उण रै दाह उपावणो ,
पदमण सुजस प्रकास।।
काठ चढै ली कीरती,
रम घम झाळां रास।
दिन- दिन दूणो दीपतो,
पदमण सुजस प्रकास।।
ससिहर साखा सांपरत,
भरै साख भल भास।
दाह दीनी उर दोयणां,
पदमण तणै प्रकास।।
लंगर पहरण लाजरा,
हिरदै बळण हुलास।
करगी ऊजळ कोम नै,
पदमण गात प्रकास।।
चमकै अजै चित्तौड़गढ,
अवनी परै उजास।
महि कोम निज मोद दे,
पदमण सुजस प्रकास।।
हिरदै हिंदवां हार हिव,
पाप आसी पिंड पास।
अंतस जद दे ऊरमा,
पदमण सुजस प्रकास।।
गौरव देवण गहर मन,
तोडण तन री तास।
सुणजो नितप्रत सरवणां,
पदमण सुजस प्रकास।।
गिरधरदान रतनू दासोड़ी

सोमवार, 6 नवंबर 2017

दुर्गौ कठे गयौ ले लाठी...

.......दुर्गौ कठे गयौ ले लाठी.......
रोवै मारवाड़ री माटी,दुर्गों कठे गयौ ले लाठी !
थानें राख सख्या नही मालक, ज्यांने थें जिमाई बाठी !!
चुगलखोराँ आगे गली नहीँ ही,
दुर्गदास री दाल !
हौकौ भरीयो राजाजी रौ,सेवट दियो निकाल !!
मुंडे सूँ तो कयो नहीँ हो,जाओ थे दुर्गादास !
काट मतीरो सेवक साथे,दिजौ ऊणनें खास !!
राजाओं रे चुगलखौराँ री,रहती न्यारी फौज !
अठी उठी री बाँता नें वे,परोसता नित रोज़ !!
पुग्यौ दुर्गों मेहरानगढ़ में,चावन्ड रे दरबार !
टाबर ज्यूँ अरडावण लागौ,क्यूँ हुई आ हार !!
चावन्डा सूँ पाछॊ आताँ,देख्यौ शहर जोधाण !
हियौ उण रौ भर आयौ,छोड़यौ ज़द मेहराण !!
भोले मनड़े रौ ओ मालक,फसग्यो चुगलखौराँ रे जाल !
थानें अरज करूँ मैं मायड़,पहली इणनें तूँ निकाल !!
मारवाड़ सूँ छेलौ मुजरौ,जातौ कियो जूहार !
कुलदेवी नें अरज करी वे,धाम नागाणा जार !!

मनसा म्हारी आ हिज है, मयूरध्वज रौ मान !
राखे भूप अजितसिंह,रणबँका री शान !!
दुर्गादास पुगीया अबे ,राणा रे दरबार !
सादडी़ रौ पट्टो बख्स्यो,स्वगत कियो अपार !!
दुर्गादास रौ मेवाड़ में,हौयौ जबरो मान !
राणा राखी रणबँका री,वा राठौड़ी शान !!
दुर्गौ कहे राणाजी नें,बात एक मैं अरज करूँ !
मनसा म्हारी आ हिज है,शिप्रा तट पर जाय मरूं !!
उज्जिण आप रे भाग नें,मन्न ही मन्न सराय !
दुर्गा जैडो़ देसभगत,शिप्रा में ज़द नहाय !!
शिप्रा पूछे दुर्गदास नें,सुणज्ये तूँ करणौत !
क्यूँ छोङयौ तूँ मारवाड़,भाई-बंधु अर गोत !!
बौल्यौ दुर्गौ हाथजोड़ नें,सुण तूँ शिप्रा माय !
निस्वार्थ सूँ काम करे वो,एक दिन इण गत आय !!
सतरे सौ पीछरौतरौ,आयौ मिंगसर  मास !
सुद ग्यारस शनिवार नें,दुर्गौ छोड़ी साँस !!
दुर्गौ कुल रौ सिरोंमणी राठौड़ वंश रौ मोड़ !
सामधर्म नें राखनीयौ,हुयौ न इण री जोड़ !!
मारवाड़ री क्षत्राणियाँ,राखे आ हिज आस !
पूत भला ही एक व्है,पण होवै दूर्गादास !!
रोवै मारवाड़ री माटी,दुर्गादास कठे गयौ  ले लाठी !
थानें राख सख्या नीं मालक,ज्यांनै थे बाटी !!

उखङते ओलमें

"   उखङते ओलमें"
बात 21 वीं सदी के पहले दशक की है। मरूधर के कण - कण में करूणा और अहसान के प्रति कृतज्ञता की भावना ज़िंदा नज़र आती है। लेकिन आधुनिक शिक्षा के चकाचौंध ने किस तरह हमारी माटी की नैतिकता को जलील कर रखा है? मगजी का घर बोई के पार से चार km दूर सूनी नाण में था, 300 की छांग के साथ भरा पूरा परिवार था। तीन गायें थीं। चार गधे थे जो पार से पानी सींचकर मगजी के घर तक लाते थे। गीगू मगजी की बेटी थी और एक ही बेटा सगत जिन्हें मगजी स्नेह से गीगूङी और सगतिया कहकर बुलाते थे। गीगू मगजी के साथ पानी लाने और छांग को गोता देने में व्यस्त रहती थी। सगत को पहले सूंदरा की मिडिल स्कूल में दाखिल करवाया। सगत पढ़ाई में होशियार था, छांग के फलीये गिनने से लेकर बकरे व घेटे बिकने पर व्योपारी द्वारा दिए पैसे गिनने का काम मगजी सगते को ही दिया करते थे, सगते को आगे पढाने के लिए गडरा रोङ के आदर्श स्कूल भेजा तथा गडरा में ही कमरा दिलवा दिया जिसमें तीन बच्चे और भी साथ रहते थे। सगता नियमित स्कूल जाता और विज्ञान वर्ग में स्कूल का बेहतरीन छात्र बन गया। सगते को को स्कूल के सारे अध्यापक भी बङे स्नेह से सगता शेर कहकर पुकारते थे।सगते ने 12वीं कक्षा 80%से उत्तीर्ण की और पीएमटी की तैयारी के लिए कोटा चला गया। कोटा की तकनीकी चकाचौंध में सूनी नाण के मगजी का सगतिया शेर से ना जाने कैसे सैगी ब्रो बन गया पता ही नहीं चला। कोटा में सैगी ब्रो की दिनचर्या बङी रोचक थी, सुबह 10 बजे उठना और उठकर मित्र मंडली के साथ साइबर कैफे जाना व गेमिंग व चैटिंग में पूरा दिन खराब करना, रात को फ्लैट में सैगी ब्रो बिस्तर पर टुबोर्ज की बोतलों के साथ एडवांस मार्लबोरो के धुंए फूंकता कब सो जाता पता ही नहीं लगता। परीक्षा में मेहनत के अनुरूप ही परिणाम मिला और सगता फैल हो गया। मगजी ने गांव के मास्टर मोङजी से सगते के आगे की पढाई के बारे में पूछा तो उन्होंने विदेश से एमबीबीएस करने की सलाह दी। सैगी ब्रो की इच्छा भी तो यही थी। मगजी था भले ही अनपढ़ लेकिन कालजे का काठा था। उसने सैगी ब्रो को कजाकिस्तान जाने की हामी भर दी। सैगी ब्रो ने अमेरिकन टूरिस्टर के ट्रॉली बैग में सामान समेटे सीधे कोटा से उड़ान भरी। वहाँ उसने अपनी आदतों में कुछ और बातें शामिल कर ली, एक अपने होस्टलियरों के साथ बियर बार जाना और दूसरी नगरवधुओं के घाघरों में मुंह ढके पूरा दिन गुजार देता और वेश्यालयों में चरस और गांजा पीते रहना। सैगी ब्रो के पाँच साल कब गुजरे पता ही नहीं चला। सैगी ब्रो को पैसों के बदले डिग्री के नाम पर महज़ आश्वासन। उधर मगजी दिन दूनी रात चौगुनी मेहनत कर सैगी ब्रो के बैंक अकाउंट को रिचार्ज देते रहते। छांग के पीछे दौड़ते दौड़ते एक दिन आकङे की फांक फटी पगरखी को भेदते मगजी के दांए पैर में गहराई से बैठ गई और मगजी फिर भी दौड़ धूप करते रहते। पखालें भर कर पार से पानी पिलाना, तपती दोपहरियों में खेजङी के खोखे झाङना और देर रात तक फोगों और बणों की ओट में नए फलीयों को ढूंढते रहने और आंखों में बेटे को डाक्टर बनाने के सपने ने मगजी के पैर में लगी फांक का पचवा होकर मवाद तक का रिसाव याद ही नहीं रहा। सङा हुआ पैर बदबू मारने लगा तो मगजी की धर्मपत्नी ने उन्हें छांग के पीछे जाने से रोक दिया। और घर पर ही तिल और मतीरे के बीजों को भूंजकर लिपरी बाँध दी। पर मगजी की पीड़ा कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही थी। जब पार के अन्य लोगों को ख़बर लगी तो मगजी को उपचार के लिए अहमदाबाद ले जाया गया, मगजी कहते रहे कि सगते को मत कहना नहीं तो वह सोच में पड़ेगा और पढ़ाई नहीं कर पाएगा। अहमदाबाद में भर्ती होने के उपरान्त भी वे डाक्टरों को कहते रहते कि 'हेक डीं मांहझो सगतियो य डाकतर बणसे अन माणसां रो इलाच करसे।' एक महीने बाद डाक्टरों ने गाँव के साथी और मगजी की देखभाल करने वाले 'करनींग' को बताया कि मगजी के पैर में इंफेक्शन की वज़ह से कैंसर फैल गया है और पैर को काटना पड़ेगा। मगजी का पैर आप्रेशन के बूते कट गया। मगजी की तबीयत दुरस्त हो गई, उन्हें गाँव वापस ले ले जाया गया और उन्हें बैडरेस्ट की सलाह मिली। मगजी नींद में भी बङबङाते रहते, 'मांहझो सगतियो डाकतर, सगतियो डाकतर।' भाग्य की करतूत भी अलहदा कि ठीक पंद्रह दिन बाद हृदयाघात से मगजी संसार छोड़ कर चले गए। पीछे छोड़ गए तो 200की अधमरी छांग, चार गधे और एक भारी भरकम सपना जो कभी पूरा नहीं होना था। मगजी को मुखाग्नि देने वाले हाथ भी पराये थे। तीहरे के दिन सैगी ब्रो भी पहुंच गया। उसकी आँखों में ना तो पश्चाताप और ना ही कुछ खोने की पीड़ा। और सब ख़ामोश था, पानी की पखालें, अधमरी छांग, चार गधे बार बार मगजी की याद में मानो रोए जा रहे हों। सैगी ब्रो को करनींग ने पूछ लिया कि "सगतू कडां वणीस डाकतर?" इतने में गीगू सैगी के बैग में स्मैक की पुङिया और मार्लबोरो का पैकेट लेकर सगते के आगे फेंक देती है और करनींग क्याङी का सहारा लेते हुए आसमान को तकता मगजी को जाने क्या ओलमें दे रहा था.............
-----तेज़स........

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

पीव आया परदेश सूं

पीव आया परदेश सूं, मीठी मांझल रात।
चढ़ती किरणा मन चुभे,पीळोड़ी परभात।।

धीरज धर जे है मना,रीत जावसी रात।
सुख रो सूरज ऊगसी,पीळोड़ी परभात।।

मुक्तक

मुक्तक
        

कानून रै मांय कुबद् यां री गळ्यां कढगी
बळतै दिनां मांय हाकमां री हरकत बढगी
किणनै सुणावै खेत दर्द री आ कहाणी
जबरो जंजाळ है,बाङ खेत खावण चढगी !!

                   ✍ मातु  सिंह  राठौङ